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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
२. वि० सं० १८७१ (ई० स० १८१४) में पिता टेकसिंह की मृत्यु । माता के साथ दूसरे गाँव बड़ाकोट साबरवान में जाकर बस जाना । वहाँ पर आपका नाम बूटासिंह प्रसिद्ध हुआ।।
३. वि० सं० १८७८ (ई० स० १८२१) में १५ वर्ष की आयु में संसार से वैराग्य, १० व तक गुरु को खोज।
४. वि० सं० १८८८ (ई० स० १८३१) में दिल्ली में लुका-मत के ढूढक साधु नागरमल्ल से इम मत की दीक्षा । नाम बूटेराय जी । आयु २५ वर्ष । पाप बालब्रह्मचारी थे।
५. वि० सं० १८८८ से १८६० तक दो वर्ष तक गुरु जी के साथ रहे । दिल्ली में तीन चौमासे किये थोकड़ों और प्रागमों का अभ्यास किया।
६. वि० सं० १८६१ (ई० स० १८३४) में तेरापंथ मत (ढूढक मत का उपसम्प्रदाय) के प्राचार विचारों को जानने और समझने के लिये उसकी प्राचरणा सहित उस समय के इस पंथ के आचार्य जीतमल जी के साथ जोधपुर में चौमासा। .
७. वि० सं १८६२ में पुन: वापिस अपने दीक्षागुरु नागरमल्ल जी के पास दिल्ली प्राये । क्योंकि गुरु जी अस्वस्थ थे। दो वर्ष तक उनकी जी जान से सेवा-श्रूषा-वैयावच्च की। वि० सं० १८९३ में दिल्ली में गुरुजी का स्वर्गवास हो गया ।
८. वि० सं० १९०५ में दिल्ली में अमृतसर के अमरसिंह प्रोसवाल तातेड़ गोत्रीय ने साधु रामलाल से ढूढक मत की दीक्षा ली । इसी चौमासे में आपने रामलाल जी से "मुहपत्ती मुह पर बाँधना शास्त्र सम्मत नही।" इस विषय पर समाधान के लिये सर्वप्रथम चर्चा की। परन्तु सन्तोष. कारक उत्तर न पाने पर विचारों में हलचल की शुरुवात ।
६. वि० सं० १८६७ (ई० सं० १९४०) में गुजरांवाला-पंजाब में शुद्ध सिद्धांत सद्धर्म की प्ररूपणा का प्रारम्भ । श्रावक लाला कर्मचन्द जी दूगड़ शास्त्री के साथ जिनप्रतिमा तथा मखपत्ती विषय पर चर्चा करके यहाँ के सकल संघ को प्रतिबोध देकर शुद्ध सत्य जैनधर्म का
अनुयायी बनाया।
१०-विक्रम संवत् १८६७ से १९०७ (ई० स० १८४० से १८५०) तक १० वर्षों में रामनगर, पपनाखा, किला दीदारसिंह, गोंदलांवाला, किला सोभासिंह, जम्मू, पिंडदादनखां, रावलपिंडी, पसरुर, दिल्ली, अमृतसर, लाहौर, अम्बाला आदि पंजाब के अनेक गाँवों और नगरों में सद्धर्म की प्ररूपणा द्वारा सैकड़ों परिवारों को शुद्ध जैनधर्म को स्वीकार कराया । लुकामतियों के साथ शास्त्रार्थों में विजय पायी। अनेक प्रकार के कष्ट, उपसर्ग, परिषह बर्दाश्त करते हुए एकाकी विरोधियों का डटकर मुकाबला किया और विजयपताका फहराई।।
११-वि० सं० १९०२ (ई० स० १८४५) में स्यालकोट निवासी मूलचन्द औसवाल भावड़े बरड़ गोत्रीय को गुजरांवाला में हूंढक मत की दीक्षा दी। नाम ऋषि मूलचन्द रखा और अपना शिष्य बनाया। इसे सुयोग्य विद्वान बनाने के लिए गुजरांवाला में ही वि० सं० १९०७ तक (छह वर्षों) तक यहां के बारह व्रतधारी सुश्रावक लाला कर्मचन्द जी दुग्गड़ शास्त्री के सानिध्य में रखकर जैनागमों का अभ्यास कराया और आपने अकेले ही ग्रामानुग्राम विचरण केरके सारे पंजाब में सद्धर्म का प्रचार किया।
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