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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म अर्थात्- श्री ऋषभदेव जैनधर्म के प्रर्वतक, ग्यारह हज़ार शिष्यों को धारण करने वाले मुनि ने जगति तल पर जैनधर्म का विस्तार किया है। श्रीमद्भागवत पुराण में कहा है(४) "वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमंथीनांशुक्लया तनु वावतार ।" अर्थात्-वातरशना (प्राणायाम करनेवाले) योगियों, श्रमणों, ऋषियों तथा ऊर्ध्वमंथिन (ब्रह्मचारियों) का धर्म प्रकट करने के लिये ऋषभ शुवल सत्वमय विग्रह से प्रगट हुए। इसी ग्रंथ में एक श्लोक है(५) "नित्यानुभूत निजलाभ निवृत्ति तृष्ण: श्रेयस्य तद्वचनया चिर सप्तबुद्धेः । लोकस्य य: करुणाऽभयमात्मलोकमास्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मैः ॥" अर्थात्-निरन्तर विषयभोगों की अभिलाषा के कारण अपने वास्तविक श्रेय से चिरकाल तक बेसुध हुए लोगों को जिन्होने करुणावश निर्भय प्रात्मलोक का उपदेश दिया था और जो स्वयं निरन्तर अनुभव होने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति से सब प्रकार की तृष्णाओं से मुक्त थे, उस भगवान ऋषभदेव को नमस्कार है । स्कन्ध पुराण में कहा है(६) : कैलासे पर्वते रम्ये, वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारं यः सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ॥" अर्थात्-केवलज्ञान द्वारा सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता, परमकल्याणरूप-शिव वृषभ (ऋषभ) देव जिनेश्वर मनोहर कैलाश (अष्टापद) पर्वत पर पधारे। श्री ऋषभदेव भगवान का उल्लेख ऋग्वेद के अतिरिक्त अन्य वेदों में भी है। (७) वैदिक यंत्रालय अजमेर से प्रकाशित ऋग्वेद संहिता (वि० सं० २०१० पृष्ठ १४४) मंत्र १ सूक्त १६०; मं०-१ (पृ० १७५); २२-२३-१६ (पृ० २६३); ५-२८-४ (पृ० ३३७); ६-१-८ (पृ० ३५३); ६-१६-११ तथा पृष्ठ ७७५ तथा (८) यजुर्वेद संहिता (वैदिक यंत्रालय वि० सं० २००७) पृष्ठ ३१ मंत्र ३६-३८ । तथा (8) अथर्ववेद (वैदिक यंत्रालय वि० सं० २०१५) पृ० ३५६ मंत्र ४२-४ में भी ऋषभदेव का उल्लेख है। (१०) इसके अतिरिक्त कूर्मपुराण अ० ४१, अग्निपुराण अ० १०, वायुपुराण पूर्वार्द्ध अ० ३३, गरुड़ पुराण अ० १, मार्कण्डेय पुराण (आर्य महिला हितकारिणी वाराणसी) खं०२ पृ० ३२०; (पाजिटर अनुदित पृ० २७४); ब्रह्माण्ड पुराण पूर्वार्द्ध अ० १४; वराह पुराण प्र० ७४; विष्णु पुराण अंश २ अ० १; श्रीमाल पुराण में भी ऋषभदेव के उल्लेख हैं। 1. श्रीमद्भागवत-खं० ५५० ४ श्लोक २०, 2. श्रीमद्भागवत खं० १५० ३ श्लोक १३ तथा स्कन्ध ५ अ०६ 3. कौमार खं० अ० ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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