SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत की आदि सभ्यता का स्रोत है और भारत की सभ्यता एवं संस्कृति का एक ऐसा अंग है कि उसे निकाल देने से हमारी संस्कृति का रूप ही एकांगी और विकृत रह जायेगा। वैदिक साहित्य में ऋषभदेव को अवतार रूप में मान्यता का जहाँ ब्रह्मा ने भागवत में विष्णु के २४ अवतारों का उल्लेख किया है, वहाँ कहा है कि (१) नामेर' सा वृषभः पास सुदेवि वृनुर्यों व चचार समदृग्जडयोग चर्यान यत् पारमहंस्यमृषयः पदमातमन्ति स्वस्थः प्रशांतकरणः परिमुक्तसंगः ॥3 अर्थात् -नाभि की सुपत्नि सुदेवि (मरुदेवी) के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में जन्म लिया। इस अवतार में उन्होंने समस्त प्रासक्तियों से रहित होकर अपनी इन्द्रियों और मन को अत्यंत शांत करके एवं अपने स्वरूप में स्थिर होकर समदर्शी के रूप में जड़ों की भांति योगचर्या का प्राचरण किया। इस स्थिति को महर्षि लोग पर महंस पद कहते हैं। इसी ग्रंथ में श्री ऋषभदेव को अवतार होने की बात नारद ने भी कही है (२) तमाहूर्वासुदेवांशं मोक्षधर्म विवक्षय: ॥ अर्थात्-शास्त्रों में इन्हें (ऋषभदेव को) भगवान वासुदेव का अंश कहा है। मोक्षमार्ग का उपदेश देने के लिये उन्होंने अवतार लिया। श्रीमाल पुराण में कहा है कि (३) प्रथम ऋषभो देवो जैनधर्म प्रर्वतकः । एकादश सहस्राणि शिष्याणां धारितो मुनिः । जैन धर्मस्य विस्तारो करोति जगति तले (अ० ७२ श्लो० ११-१२) 1. श्री नाभिराजा और ऋषमदेव की विश्वमान्य महानता के कारण नाभिराज केवल वैदिकों व जैनों में ही नहीं अपितु मुसलमानों ने उन्हें ईश्वर का दूत-रसूल-नबी-पैगम्बर माना है। यह शब्द संस्कृत में नाभि और. प्राकृत में नाभि एवं णाभि का ही नबी रूपोतान्तर है। नबी अरबी भाषा का एक शब्द है जिसका अर्थ होता है, ईश्वर का दत. पैगम्बर और रसल । (उर्द हिन्दी कोश रामचन्द्र शर्मा संपादित चतर्थ संस्करण अगस्त ई० १९५३ पृ० २२४) नाभि के नाम पर ही इस आर्यखण्ड को नाभिखण्ड या अजनाभवर्ष भागवत आदि पुराणों में कहा है। भागवतकार आगे चलकर लिखता है कि अजनाभवर्ष ही आगे चल कर नाभि के पौत्र चक्रवर्ती भरत के नाम से भारतवर्ष संज्ञा से प्रसिद्धि पाया। अनेक विद्वानों की धारणा है कि मसलमान लोग श्री ऋषमदेव को ही बाबा आदम के नाम से अपना नबी मानते हैं क्योंकि नबी-नाभि (ऋषमदेव के पिता का नाम) का समानार्थक है और इसी नबी के पुत्र ऋषम को आदि नबी मानकर बाबा आदम का नाम दिया गया है। इससे यह फलित होता है कि हजरत मुहम्मद (मुसलिम भत संस्थापक) के समय में भी अरब प्रादि देशों में भी ऋषभ की ईश्वररूप में मान्यता थी इसलिये वहाँ पर भी जैनधर्म का प्रसार था। अतः उस काल से पहले से ही वहां जैनों के उपास्य अर्हतों (तीर्थ करों श्री ऋषभदेव आदि) के जैन मंदिर भा सर्वत्र विद्यमान अवश्य होंगे। यदि वहाँ पर सर्वे किया जावे तो भूगर्भ से प्राप्त परातत्व सामग्री से जैनधर्म के इतिहास पर अत्यधिक प्रकाश पड़ने की संभावना है। 3. खण्ड १ सकन्ध २, अध्याय ७.१० 4. सकन्ध ११ अध्याय २, खण्ड २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy