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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
विशेष अध्ययन तथा विशेष परीक्षा के बल पर जर्मन के प्रो० हर्मन यकोबी ने उपर्युक्त मतों का निराकरण करके यह स्थापित किया कि जैन और बौद्ध परम्परा दोनों स्वतन्त्र हैं, मात्र इतना ही नहीं बल्कि जैनधर्म बौद्ध धर्म से पुराना भी है और ज्ञातपुत्र महावीर तो इस धर्म के अन्तिम पुरस्कर्ता हैं। महावीर से पहले तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जिनका निर्वाण महावीर से २५० वर्ष पहले हुआ था वे भी ऐतिहासिक हैं। करीब सवा सौ वर्ष जितने परिमित काल में एक ही मुद्दे पर ऐतिहासिकों की राय बदलती रही। पर प्राश्चर्य तो इस बात का है कि इस बीच में किसी भी त्यागी अथवा गृहस्थ जैन विद्वान ने अपनी यथार्थ बात को भी इस ऐतिहासिक ढंग से दुनियां के सामने न रखा।
यह कहना भी ग़लत है कि जैनधर्म वैदिकधर्म की प्रतिक्रियारूप अथवा पाश्र्वनाथ से प्रचलित हुआ। सच्चाई तो यह है कि यह सर्वथा स्वतंत्र धर्म है और वैदिक काल से भी प्रति प्राचीन काल से पहले चला आता है । इस बात की पुष्टि हम वैदिक साहित्य तथा सिन्धु घाटी भ्यता की प्राप्त पुरातत्त्व सामग्री से विस्तारपूर्वक कर पाये हैं। हमारे इस मत की पुष्टि श्री .P C. Roy Chaudhary जो पुरातत्त्व विभाग के उच्चाधिकारी थे उनके निम्नलिखित लेख से भी हो जाती है
“A common mistake has been made by some of the recent writers in holding that Jainism was born teccuse of discontent against Brahmanism. This wrong theory originates because these writers have taken Vardhmana Mahavira as the founder of Jainism. This is not a fact. It is true that the historicity of the other Jain slabs lies burried in the lap of harry times long before history came in to existance, but at least there is a certain amount of historicity regarding Parshwanatha the 23rd Tirthankra. The creed had already originated and spread and Mahavira propcgated it within historic time and that it is probably the reason why the mistake has been made by some of the eminent scholars whose name however need not be mentioned here.
अर्थात् प्राधुनिक कुछ लेखकों ने यह लिखकर एक साधारण भूल की है कि (वैदिक) ब्राह्मणधर्म के विरुद्ध असंतोष की भावनाएं फैल जाने के कारण जैनधर्म की उत्पत्ति हुई । इस ग़लत धारणा का सूत्रपात इसलिए हुआ कि उन्होंने वर्धमान-महावीर को जैन धर्म का प्रर्वतक मान लिया, पर यह तथ्य ठीक नहीं है। यह सत्य है कि अन्य तीर्थंकरों के ऐतिहासिक प्रमाण-जिन प्रतिमाएं इतिहास काल शुरू होने से बहुत पहले लम्बे काल की अवधि से नीचे दबी पड़ी हैं । परन्तु तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के बारे में तो निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण पाये जाते हैं । अतः जैनधर्म की उत्पत्ति एवं प्रसार बहुत पहले ही हो चुका था और महावीर ने इसका अत्यधिक प्रचार किया था। यही कारण है कि इस प्रकार की गलत धारणा कई ख्याति प्राप्त विद्वानों से हो गई। उन विद्वानों का नाम देना यहां आवश्यक नहीं है।
उपर्युक्त विवेचन से और जैनागमों से भी प्रमाणित है कि जैनधर्म न केवल भारत का अपितु विश्व का प्राचीनतम आध्यात्मिक धर्म है। इसकी प्राचीनता के सम्बन्ध में काफ़ी प्रमाण दिए जा चुके हैं और इसकी विशेष पुष्टि के लिए आगे भी लिखेंगे। यदि सच कहा जावे तो जैनधर्म विश्व 1. S.B.E. Vol. Introduction p. 18-19
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