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जैनधर्म की प्राचीनता श्रौर लोकमत
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पुराण के अभिमत से भगवान् ऋषभदेव मोक्ष मार्ग के प्रवर्तक अवतार थे 11 भगवान ऋषभ के गृहस्थावस्था में भरतादि सौ पुत्र थे । उनमें से नौ वातरशना श्रमण बने । वे आत्मविद्या विशारद थे । भगवान् ऋषभ ने जिस श्रात्मविद्या और मोक्षविद्या का प्रवर्तन किया था वह सुदीर्घकाल तक क्षत्रियों के अधीन रही । वृहदारण्यक और छन्दोग्य उपनिषद् में हम देख पाते हैं कि अनेक ब्राह्मण क्षत्रिय राजानों के पास आते हैं और आत्मविद्या का बोध लेते हैं 12 विन्टरनीत्स के मत में दार्शनिक चिंतन ( अथवा जागरण ) ब्राह्मण युग के पश्चात् नहीं किन्तु इस युग से पूर्व शुरू हो चुका था। स्वयं ऋग्वेद में ही ऐसे सूक्त हैं जिनमें देवताओं और पुरोहितों की अद्भुत शक्ति में जनता के अन्धविश्वास के प्रति कुछ संदेह स्पष्ट हो चुके हैं । "
आश्चर्य है
वैदिक और बौद्ध आदि परम्पराम्रों से जैन परम्परा भिन्न, स्वतन्त्र, आस्तिक तथा पुरानी है और उसके अन्तिम पुरस्कर्ता वर्धमान महावीर बुद्ध से भिन्न व्यक्ति हैं; इस विषय में किसी भी जैन व्यक्ति को कभी भी सन्देह नहीं था । ऐसी सत्य और असंदिग्ध वस्तु के ख़िलाफ़ भी विदेशी विद्वानों की राय प्रकट होने लगी । (१) वेदों, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों ने इस श्रहेत् श्रमण श्राध्यात्मिक धर्म को नास्तिक, श्रवैदिक, श्रनायं श्रब्राह्मणादि धर्म के नामों से वर्णन किया है । (२) गत शताब्दी में प्रो० लासेन ने लिखा कि बुद्ध और महावीर एक ही व्यक्ति थे, क्योंकि बुद्ध और महावीर की मान्यताओं में अनेकविध समानता है और जैनधर्म को महावीर ने प्रारम्भ किया । ( ३ ) थोड़े वर्षों के बाद अधिक साधनों की उपलब्धि और विशेष अध्ययन के बल पर प्रो० बेवर आदि विद्वानों ने यह मत प्रकट किया कि जैनधर्म बौद्धधर्म की एक शाखा है, वह उससे स्वतन्त्र नहीं है । (४) आगे जाकर विशेष साधनों की उपलब्धि,
संक्रान्तिकाल था । उनके समय में भारत भोगभूमि थी । कल्पवृक्ष फलते थे। सबको उनका कामना वांछित फल
कल्पवृक्षों से मिलता था, किन्तु उनके जीवनकाल में ही भोगभूमि समाप्त हो गई थी । कल्पवृक्ष निशेष प्रायः हो चुके थे। नये नये प्रश्न उपस्थित होते गये । उनके नये हल चाहियें थे । नाभिराय ने धैर्यपूर्वक अपनी सूझबूझ से उनका समाधान दिया । वे स्वयं प्राणसह बने, इसलिये उन्हें क्षत्रीय कहा गया । क्षत्रीयस्त्राण सहः; उनपर चरितार्थ होता था । आगे चलकर क्षत्रीय शब्द नाभि अर्थ में रूढ़ हो गया । अमरकोशकारने "क्षत्रिये नाभिः ( ३।५।२० ) और आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने कोष अभिधान चिंतामणि (१1३६) में "नाभिश्चक्षत्रिये" लिखा है । उन्होंने पुरुषार्थ से सत्युग ( कर्मभूमियुग) को जन्म दिया। जब उन्होंने उस समय की सब समस्याओं के समाधान के लिये अपने पुत्र ऋषभ को पूर्ण समर्थ देखा तब प्रजानों को उन्हीं के पास भेजना प्रारंभ कर दिया और उन्हें राज्य सहासनारूढ़ कर राज्याभिषिक्त किया ।
इस प्रसंग को कवि सूरदासजी ने सूरसागर में भी लिखा है कि"बहुरि रिसभ बड़े जब भये, नाभि राज देवन को गये । रिसभ राज परजा सुख पायो, जस ताको सब जग में छायो।" इसीलिये क्षत्रियों के पूर्वज श्री ऋषमदेव को कहा है।
1. भागवत स्कन्ध ५ प्र० ६ ।
2. छांदोग्य उपनिषद् ५१३, ५।११ (त्तीय संस्करण) 1 वृहदा 3. प्राचीन भारतीय साहित्य - प्रथम भाग, प्रथम खण्ड पृष्ठ १८६
4. 5. S. B. E. Vol 22 Introduction P. 18-19.
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