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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म भारतीय इतिहास को जब हम विश्व इतिहास का एक भाग मानकर अध्ययन करते हैं तथा विशेषकर निकट पूर्व (near east) से संबोधित कर वेदों का अध्ययन करते हैं तो मानव इतिहास की अनेक समस्याएँ सहज ही सुलझ जाती हैं। वेदों में वर्णित घटनाओं का मतलब निकट पूर्व (near east) की घटनाएँ मालूम होती हैं। इन घटनाओं से विद्वानों ने सिद्ध किया है कि वैदिक आर्य लोग भारत में बाहर से आये हैं, उन्हें बाहर से आने पर दो प्रकार के शत्रुओं से सामना करना पड़ा। एक व्रात्य कहलाते थे जो सभ्य जाति के थे। दूसरे थे दास या दस्यु जो वैदिक आर्येतर नगरों में रहने वाले थे। वेदों में इनके बड़े-बड़े नगरों (पुरों) का उल्लेख है। उनमें जो व्यापारी थे वे पणि कहलाते थे, जिनके साथ वैदिक आर्यों को अनेक बार युद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद में देवास तथा पुरुकुत्स उन पुरों के स्वामियों से युद्ध का वर्णन है। इन वैदिक विदेशी आर्यों ने भारतवासी पार्यों को अनार्य की संज्ञा दी है। अतः भारत की प्राचीनतम संस्कृति श्रमण संस्कृति है और वह अहंतों (तीर्थंकरों) की उपासक थी जो अब तक भारत में विद्यमान है । श्रमण परम्परा प्रात्म-विद्या की परम्परा है, वह इतनी ही प्राचीन है जितनी आत्मविद्या है। भारतीय विद्याओं (संरकृतियो) में आत्मविद्या का स्थान सर्वोच्च तथा प्राचीनतम है। जो व्यक्ति प्रात्मा को नहीं पहचानता वह बहुत कुछ जान कर भी ज्ञानी नहीं बन पाता। प्रात्मविद्या क्षत्रीय परम्परा के अधीन रही है। पुराणों के अनुसार क्षत्रियों के पूर्वज भगवान् ऋषदेव' हैं और वे जैनों के प्रथम तीर्थंकर धर्म प्रवर्तक हैं। श्रीमद्भागवत् 1. यद्यपि प्रवाह से काल अनादि अनन्त है किन्तु व्यावहारिक सुविधा के लिये उसे सेकिण्ड, मिनट, घंटा, दिन, रात, मास, वर्ष और संवत्सर ग्रादि में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त जैनदर्शन ने एक दूसरी दष्टि से भी काल का विभाजन किया है-उत्सपिणी और अवसर्पिणी। एक समय ऐसा आता है जब जगत अवनति की ओर ढुलकता जाता है। इस काल को अवसपिणी कहा जाता है। एक समय ऐसा आता है जब जगत उन्नति की और ही अग्रसर होता जाता है उसे उत्सपिणी कहते हैं। एक में प्राणियों का बल, आयु, शरीर प्रमाण और सुख-सुविधाएं घटती जाती हैं तो दूसरे में बढ़ती जाती हैं। यह काल चक्र घड़ी के समान होता है। जैसे घड़ी की सूई छह तक नीचे की और फिर छह तक ऊपर की ओर चलती इसी भांति दोनों काल १-सुषमा-सुषमा, २-सुषमा, ३-सुषमा-दुषमा, ४-दुषमा-सुषमा, ५-दुषमा, ६-दुषमादुषमा के छह छह चक्रों में अवनति-उन्नति के मध्य घूमते रहते हैं। ये छह चक्र ारों के नाम से संबोधित किये जाते हैं। दोनों को मिलाकर एक कल्प होता है। जिसे आज की भाषा में युग भी कहते हैं। उपयुक्त अवसर्पिणी में से तीन कालों में यहां भोगभूमि थी। तब लोगों की आवश्यकताएं बिना श्रम किये ही कल्पवृक्षों से पूर्ण हो जाती र्थी। धीरे-धीरे उनकी संख्या और प्रभाव क्षीण होते गये इस लिये नई-नई समस्याएं उत्पन्न होती गयीं। जब तीसरे काल की समाप्ति में कुछ समय शेष था और कल्पवृक्षों का प्रभाव और संख्या क्षीण होते ही जा रहे थे तब उन समस्याओं को सुलझाने के लिये कालक्रम से १४ मनुओं ने प्रजा का मार्गदर्शन किया। उन कुलकरों के नाम क्रमशः इस प्रकार है-प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वान, अभिचन्द्र, चन्द्राय, मरुद्देव, चन्द्राभ, नाभीराय। इन चौदह ही कुलकरों ने अपने-अपने काल में जनोपयोगी कार्य किये। इन में से नाभि हम सब के विशेष रूप से परिचित हैं। उनका नाम वैदिक और श्रमण दोनों परम्परामों के ग्रन्थों में समान रूप से पाया जाता है। वे अत्यधिक प्रभावशाली थे। उनके नाम पर इस देश को अजनाभवर्ष कहते थे। शाश्वत कोश में लिखा है कि-"प्राण्यंगे क्षत्रिये नाभिः प्रधान नपतावपि"। इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार प्राणी के अंगों में नाभि मुख्य होती है, उसी प्रकार सब राजारों में नाभि मुख्य थे। नाभिराय का युग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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