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जैन साहित्य की महानती
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सारे साहित्य को मिला देने पर भी सर्वाधिक है।
जैन साहित्य के विषय में अनेक पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों ने मुक्तकंठ से प्रशंसा
(१) जर्मनी का विद्वान् डा० हर्टल अपने लेख में लिखता है कि
“Now what would Sanskrit poetry be without this large Sanskrit Literature of the Jains. The more I learn to know it the more my admiration rises (Jain Shasan Vol. I No. 21.
अर्थात् - जैनियों का महान् संस्कृत साहित्य यदि अलग कर दिया जावे तो मैं नहीं कह सकता कि संस्कृत साहित्य की फिर क्या दशा हो । जैसे-जैसे इस साहित्य को मैं विशेष रूप से जानता जाता हूं वैसे ही वैसे मेरा मानन्द बढ़ता जाता है। इसे और भी विशेष रूप से जानने की इच्छा बढ़ती जाती है।
मैं अपने देशवासियों को दिखलाऊंगा कि कैसे उत्तम नियम और ऊंचे विचार जैनधर्म और जैनाचार्यों में हैं (जो इस साहित्य के स्रष्टा हैं ।)
जैनियों का साहित्य बौद्धों से बहुत श्रेष्ठ है और ज्यों-ज्यों मैं जैनधर्म और उसके साहित्य को समझता हूं त्यों-त्यों मैं उसे अधिक पसन्द करता हूं।
(२) जैनधर्म का तत्त्वज्ञान और सिद्धान्त मुझे बहुत पसन्द हैं। मेरी यही अभिलाषा है कि मृत्यु उपरान्त मेरा जन्म जैन परिवार में हो (विश्वविख्यात् तत्त्ववेत्ता जार्ज बरनार्डशा)
(३) ऐतिहासिक संसार में जो जनसाहित्य सर्वोपयोगी है, वह इतिहासज्ञों और तत्त्ववेत्तानों के लिये अनुसंधान की विपुल तथा अमूल्य सामग्रो उपस्थित करता है।
(डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण एम० ए० पी० एच. डी० कलकत्ता) (४) जैनधर्म (साहित्य) का जितना मैंने अभ्यास किया है, उस पर से मैं दृढ़ता के साथ कह सकता हूँ कि यदि विरोधि सज्जन भी जैनसाहित्य का अभ्यास व मनन सूक्ष्म रीति से करेंगे तो उनका विरोध समाप्त हो जावेगा । और वे विरोध करना ही छोड़ देंगे ।
__(डा० गंगानाथ झा एम० ए० डी० लिट्) (५) जैनधर्म (साहित्य) पढ़ने की मेरी हार्दिक इच्छा है, क्योंकि मैं ख्याल करता हूं कि व्यावहारिक योगाभ्यास के लिये यह साहित्य सबसे प्राचीन है और वेद के रीति रिवाजों से पृथक है।
(रायबहादुर पूर्णेन्दुनारायणसिंह एम० ए०) (६) मैं जैन सिद्धान्त के सूक्ष्म तत्त्वों से गहरा प्रेम करता हूं। (मुहम्मद हाफ़िज़ सय्यद बी० ए० एल० टी)
(७) भारतीय हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि पं० मैथलीशरण गुप्त भारत-भारती में लिखते हैं कि
फैला हिंसा बुद्धिवर्धक, जैन-पंथ समाज भी।
जिसके विपुल साहित्य की विस्तीर्णता है प्राज भी॥" श्री सुधर्मास्वामी, श्री भद्रबाह, श्री उमास्वाती, श्री सिद्धसेन दिवाकर, श्री कुन्दकुन्दाचार्य श्री समंतभद्र, श्री देवनन्दि, श्री अकलंक, श्री हरिभद्र सूरि, श्री हेमचन्द्राचार्य, मल्लवादी
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