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________________ ग्रंथकर्ता और कवि प्रभु ज्ञानसागर गुण ही प्रागर, प्रादिनाथ जिनेश्वरं । सब भविकजन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरं ॥१॥ (अन्त) तनु जो राम सुसिद्धि निसपति (१८३५), मास फागन सुदि कही। तीन दश (१३) तिथि भूमि को सुत (मंगलवार) नगर फगवा कर लही ।। कर जोड़ के मुनि मेघ भाखे, शरण राखू जिनेश्वरं । सब भविकजन मिल करो पूजा, जपो नित परमेश्वरं ॥२५॥ यति कवि मेघराजऋषि की गद्दी फगवाड़ा में थी, इन के उपाश्रय में श्री पार्श्वनाथ की प्रतिमा घरचैत्यालय में प्रतिष्ठित थी। (५) श्रावक कवि हरजसराय की रचनाएं [जाति प्रोसवाल, गोत्र गद्दहिया, कसर-पंजाब निवासी] ग्रंथ नाम वि० सं० ग्रंथ नाम वि० सं० १. गुरुगुण रत्नमाला १८६४ ३. देवाधिदेव रचना १८६५ ___(जैन साधुओं के विषय में)। (तीथंकरों के विषय में) २. श्री सीमंधर स्वामी छंद १८६५ ४. देवरचना (देवतामों-१८७० देवलोकों के विषय में) १. परिचय-साधु गुणमाला (गुरुगुण रत्नमाला) वि० सं० १८६४ चैत्र सु० ५ प्रारंभ - श्री त्रैलोक्याधीस को वन्दो ध्यावों ध्यान । या सेवा साता सुधी पावो नीको ज्ञान ।।१।। अलख आदि इस ईस की उत्तम ऊंचो एक । ऐसो मोड़क और नहीं अन्त न आवे जग टेक ॥२॥ मुनि मुनिपति वर्णन करण शिव शिवमग शिवकरण । जस जस ससियर दीपत जग जय जय जिन जनसरण ॥३॥ कहत जस सुर असुर अहि उड़गन नर गहि सरण । जिह समरण समकित विमल प्रणमत हरजस चरण ।।४।। वन्दो श्री समंदर स्वामी सदा कृपाल ॥ श्रु तदेवी को वन्द के रचू साधु गुणमाल ॥५॥ अन्त-अठदस वरषे चोसठे चेत मासे । ससि मृग सित पक्ष पंचमी पाप नासे रचि मुनि गुणमाल मोद पाया कसूरे। हरजस गुण गाया नाथ जी पास पूरे ॥१२५॥ २. परिचय-देवाधिदेव रचना वि० सं० १८६५ चैत्र सुदि १ प्रारंभ-सकल जगतपति परमपद पूरण पुरुष पुरान । परम ज्योति राजत सदा सो वन्दो भगवान ॥१॥ वन्दों श्री ऋषभादि जिन वर्धमान अरिहंत । श्री चंद्रानन देव थी, वारिषेण परर्यत ॥२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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