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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
कवि मालदेव का परिचय-प्रभु महावीर के निग्रंथ गच्छ की पट्टावली में ३५ वे पट्टपर आचार्य श्री उद्योतन सूरि से बड़गच्छ निकला। इसी गच्छ में विक्रम की १७वीं शताब्दी में यति कविमाल हुए है। इन का संबन्ध बड़ गच्छ भटनेर श्रीपूज्य की गद्दी से था। आप ने दीर्घकाल तक संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, हिन्दी आदि भाषाओं में बहुत जैन ग्रंथों की रचनाएं की हैं। जिनमें से कुछ के नाम ऊपर लिखे हैं । ये ग्रंथ पाप ने अधिकतर सिरसा नगर में रचे हैं। आप उच्चकोटि के कवि थे। पाप का उल्लेख कवि ऋषभदास ने पूर्व के विद्वान कवियों के रूप में अपने कुमारपाल रास ग्रंथ में किया हैं । इस कवि को रचनाएं ललित और सुन्दर हैं। इस के गुरु भावदेव सरि थे । भावदेव सूरि का उपाश्रय अभी भी भटनेर (हनूमानगढ़) में है । श्रीपूज्य भावदेव के शिष्य पंजाब और सिंध में भी रहते थे।
कवि मालदेव की गुरवावली इस प्रकार हैबृहद् (बड़) गच्छीय भद्रेश्वर सूरि के पट्टधर मेरुप्रभ सूरि के पट्टधर पुण्यप्रभ सूरि के पट्टधर भावदेव सूरि के पट्टधर शिष्य शीलदेव सूरि तस्य भ्रातृ मुनि मालदेव के कई शिष्य थे। आप के दामोदर नाम के एक शिष्य ने वि० सं० १६६४ में सामाना के अनन्तनाथ प्रभु के स्तवन की रचना की थी।
(४) उत्तराध लौकागच्छीय यति श्री मेघराज ऋषि की रचनाएं ___ [फगवाड़ा-पंजाब---समय विक्रम की १६ वीं शताब्दी] नाभ ग्रंथ वि० संवत् | ग्रंथ नाम
वि० सं० १ मेघमाला १८१७ | ६. पिंगल शास्त्र
१८४३ २. मेघ विनोद १८२८ । ७. मेघविलास
१८४७ ३. गोपीचन्द कथा
१८२५ / ८ मेध मुहूर्त ४. दान शील तप भावना १८३२ / ६. अन्य अज्ञात कृतियाँ ५. चौबीसी स्तव (प्रात:मंगल पाठ) १८३५
परिचय--आप अपने समय में उच्चकोटि के विद्वान, कवि यति (पूज) हो गये हैं आप की गरवावली इस प्रकार है - वि० सं० १५३१ में लुकामत के प्रादि यति जिन से लौंकागच्छ की उत्पत्ति हुई भूणा ऋषि थे, २ भीदा ऋषि, ३. नूना ऋषि, ४. भीमा ऋषि, ७. रायमल्ल ऋषि (अपने गुरुभाई भल्लों के साथ गुजरात से सर्वप्रथम इस गच्छ के यति पंजाब में पाये), ८. सदारंग ऋषि, ६. सिंघराज ऋषि, १०. जटमल ऋषि, ११. परमानन्द ऋषि, १२. सदानन्द ऋषि, १३. नारायणदास ऋषि, १४. नरोत्तम ऋषि, १५. मैया ऋषि, १६. मेघराज (वि० सं० १८७५ तक जीवित), इनके पट्ट शिष्य १७. माणेक ऋषि, १८. महताब ऋषि, १६. मंगलऋषि, २०. मनसाऋषि, २१. राजकरण ऋषि (वि० सं० १९२३ में विद्यमान था)।
कवि की रचनाएं कितनी ललित और सुदर थी, उसका परिचय चौबीसी स्तव से मिल जाता है--यथा
प्रात:मंगल पाठ चतुर्विशति स्तव (प्रारंभ) सुखकरण स्वामी जगतनामी, प्रादि करता दुःखहरं ।
सुर इदं चन्द फुनिंद वंदत, सकल अघहर जिनवरं ।।
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