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________________ ३७८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म (समाधिमंदिर) से दक्षिण की ओर लगभग दो मील की दूरी पर इसकी अपनी विशाल बिल्डिंग का निर्माण किया गया। स्कूल, छात्रालय, भोजनशाला तथा जैन मंदिर, उपाश्रय प्रादि सब विभाग इस बिल्डिंग में निर्माण किये गये। गुरुकुल को इस बिल्डिंग में स्थाई रूप से परिवर्तित कर दिया गया। पश्चात् इसे हाईस्कूल में परिवर्तित करके पंजाब विश्वविद्यालय के अभ्यासक्रम के साथ जैन धर्म के शिक्षण की व्यवस्था भी कायम रखी गई । कुछ विद्यार्थी जो दूसरे नगरों के थे, वे गुरुकुल के छात्रालय में रहते थे। गुजरांवाला के विद्यार्थी यहां पढ़ने के लिये आते थे फिर अपने घरों को चले जाते थे। शहर से विद्यार्थियों को लाने ले जाने का प्रबन्ध टांगों का किया गया था क्योंकि गुरुकुल शहर से तीन-चार मील की दूरी पर था। गरुकल के अंतिम प्रिंसिपल श्री रामरखामलजी तथा अधिष्ठाता लाला अनन्तराम दूगड़ एडवोकेट और मंत्री लाला जिनदासराय दूगड़ एडवोकेट थे। इस प्रकार इस संस्था में अनेक उत्थान तथा पतन पाते रहे और अन्त में पाकिस्तान बन जाने पर इस संस्था का अन्त हो गया। ई० सं० १९२४ से लेकर १९४७ तक यह संस्था २३ वर्ष की अपनी अल्प प्रायु पूरी करके समाप्त हो गई। अधिष्ठाता बाबू कीर्तिप्रसाद (बाबा) जी तथा फूलचन्द हरिचन्द दोशी महुवाकर (गुरुजी) सुप्रिंटेन्डेंट गुरुकुल को पहले ही छोड़ चुके थे। फूलचन्दभाई (गुरुजी) के स्थान पर बाबू बंसीधर जी बी० ए० बी० टी० प्रिंसिपल के रूप में गुरुकुल में ई० स० १६२८ में आये । वे भी कुछ वर्षों के बाद चले गये और उन्होंने जोधपुर जाकर वहाँ एक आदर्श संस्था बालनिकेतन नाम की स्वतंत्र रूप से स्थापित की जिसमें विद्यार्थियों को शारीरिक दंड देना एकदम वजित था। आप वहाँ भाई जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। सारी स्टेट के बड़े-बडे शिक्षणशास्त्री, प्राफ़िसर आदि प्रापकी सादगी, सेवाभाव तथा निर्भयता का लोहा मानते थे और आपको एक आदर्श शिक्षणशास्त्री मानते थे। आपका स्वर्गवास भी जोधपुर में ही हुआ । आप श्वेतांबर जैन मूर्तिपूजक बीसा श्रीमाल ज्ञातीय थे। और चरखीदादरी के रहने वाले थे। प्रापके सुपुत्र श्री धर्मवीरजी चरखीदादरी में डाक्टर हैं । और इसी गुरुकुल के विद्यार्थी हैं। अतः श्री प्रात्मानन्द जैनगुरुकुल पंजाब गुजरांवाला को स्वर्गवासी प्रात्मगुरु की भावना के अनुरूप उनके पट्टधर प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी ने महासरस्वती मंदिर के रूप में स्थापित किया। इस संस्था ने अनेक प्रादर्श विद्यार्थी उत्पन्न किये जिनमें से अनेक जैनधर्म के श्रद्धालु, ज्ञानवान और चारित्र सम्पन्न होने के रूप में जैनशासन की सेवा में संलग्न हैं। ११. श्री प्रात्मानन्द जैन महासभा पंजाब (उत्तरी भारत) स्थापना-श्री प्रात्मानन्द जैनसभा पंजाब के नाम से प्राचार्य श्री विजयानन्द सूरि (आत्माराम) जी के वि० सं० १६५३ में स्वर्गवास हो जाने के बाद मुनि वल्लभविजय (प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सरि) जी ने गुजरांवाला में उसी वर्ष स्थापित कर दी थी। इसका दूसरा अधिवेशन वि० सं० १९५८ (ई० स० १६० १) में लाहौर में हुआ। इस प्रकार समय-समय पर इसके अनेक नगरों में सम्मेलन होते रहे । किन्तु विजयवल्लभ सूरि जी के पंजाब से विहार कर जाने से कई वर्षों तक पंजाब में न विचरणे के कारण एवं पंजाब में विचरणे वाले वृद्ध मुनिराजों के स्वर्गवास हो जाने पर इसका संगठन कायम न रह पाया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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