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________________ जैनमंदिर और उपाश्रय ३६५ (१) जैनश्वेतांबर मन्दिर (२) जैन श्वेतांबर उपाश्रय (३) प्राचार्य विजयसमुद्र सूरि का समाधिमन्दिर ३२. रानियां जिला सिरसा (हरियाणा) (१) यहां एक श्वेतांबर जैन खरतरगच्छ के यति का निर्माण कराया हुआ मंदिर था। यति के मरने के बाद इसे स्थानक के रूप में बदल लिया गया। यहां के यति जी का हस्तलिखित शास्त्रभंडार भी ढुढ़िये साधु अन्यत्र ले गये । इस मंदिर की धातुनिर्मित जैनप्रतिमा को लाला चिरंजीलाल पोसवाल-भावड़ा डुक गोत्रीय ने इसी मुहल्ले में अपने निजी द्रव्य से भूमि खरीदकर उस पर नयेमंदिर का निर्माण कराया और उसमें इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा वि० सं० १९७४ में बीकानेर की खरतरगच्छ की गद्दी के किसी यति द्वारा कराई । इस प्रतिमा पर नीचे लिखा लेख खुदा है " (लेख) वि० सं० १६६२ बर्षे चैत्र वदि ७ दिने बुधवारे विक्रमनगरे राजाधिराज श्री श्री रायसिंह विजय राज्ये चोपड़ा गोत्र सा० कुंवरसी भार्या कोडम दे पुत्र सा० तेजाकेन भार्या तारा दे पुत्र झांझणसी लखमसी प्रतापसी युतेन श्री सुपार्श्वबिंब श्रेयार्थ कारितं प्रतिष्ठितं श्री बृहत्खरतरगच्छे श्री जिनमाणिक्य सूरि पट्टालंकार युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरिभिः शभं भवतु पुज्यमानं चिरं नन्वन्तु कल्याणं भवतु।। यह प्रतिमा सुपार्श्वनाथ प्रभु की है। प्रभु के सिर के ऊपर साँप के पाँच फण हैं। इस धातुप्रतिमा के बीच में श्री सुपार्श्वनाथ प्रभु हैं और इस प्रतिमा के प्राजु-बाजु चार तीर्थ करों की प्रतिमाएं हैं। ऊपर के दोनों तरफ़ एक-एक पदमासन में तथा नीचे की तरफ़ खड़ी काउसग्ग मुद्रा में दो प्रतिमाएं हैं। यह प्रतिमा परिकर सहित है। कद १०४७ इंच है। (२) खरतरगच्छीय दादा श्री जिनकुशल सूरि के चरणबिंब पाषाण के हैं। ये वि० सं० १६६७ में बम्बई से मंगवा का स्थापित किये गये हैं। ३३. सिरसा (हरियाणा) (१) एक श्वेतांबर जैनचैत्यालय है। मूलनायक श्री शांतिनाथ हैं। (२) एक श्वेतांबर जैनमंदिर है। मूलनायक श्री मुनिसुव्रतस्वामी हैं। इसका निर्माणत्तपागच्छीय लाला शामलाल गजानन्द पोसवाल-भावड़ा मुन्हानी गोत्रीय ने कराया। यह इनका निजी मंदिर है। (३) उपाश्रय श्वेतांबर उत्तराध लौंगोगच्छ के यति जी का है । अंतिम यति इसका ट्रस्ट बना गये थे। अब इसे तेरापंथ वालों ने अपनी धर्मशाला के रूप में बदल लिया है। यति कोई नहीं है। (४) उपाश्रय बड़गच्छ का अब स्थानक के रूप में परिवर्तित हो चुका है। यहाँ बड़गच्छ के यति कवि माल बड़े विद्वान हुए हैं। इन्होंने अनेक ग्रंथ रचे हैं । (५) यहां खरतरगच्छ की दादावाड़ी तथा इसे घेरे हुए बहुत बड़ी जमीन है। इस समय 1. यह जिनचन्द्रसूरि वही हैं जो वि०सं० १६४६ में मुगल सम्राट अकबर को लाहौर में मिले थे। 2. सिरसा के विषय में अधिक जानने के लिये देखें सिरसा नगर का विवरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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