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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
प्राचीन मिस्र के प्रारंभिक राज्यवंशों के समय की दोनों हाथ लटकाए हुए खड़ी मूर्तियां मिलती हैं। यद्यपि उन प्राचीन मिस्री मूर्तियों में तथा प्राचीन युनानी कुराई नामक मूर्तियों में भी प्रायः वही आकृति है तथापि उनमें देहोत्सर्ग निःसंगभाव का अभाव है जो सिंधुघाटी की मुद्राओं पर अंकित मूर्तियों में तथा कायोत्सर्ग ध्यान मुद्रा से युक्त जैनमूर्तियों में पाया जाता है, वृषभ का अर्थ है बैल और वृषभ-ऋषभ का पर्यायवाची भी है । तथा बंल जिन वृषभ का प्रतीक भी है।
हड़प्पा की खुदाई में मूर्तियां, मोहरें, गहने आदि विभिन्न सामान मिले हैं । प्राप्त सामग्री में नग्न पुरुष का धड़ (गर्दन से कमर के कुछ नीचे तक) भी है । जिसके सम्बन्ध में विद्वानों का मत है कि यह किसी जिन मूर्ति का संभवतः ऋषभ की मूर्ति का ही अंश है । यह धड़ उन नग्न मूर्तियों के धड़ के समान है जो पटना के समीप लोहानीपुर। की खुदाई में मिली हैं। जिसके सम्बन्ध में डा० काशीप्रसाद तथा ए० बनर्जी शास्त्री का कहना है कि वे जैन तीर्थकरों की ही मूर्तियां हैं।
इसके अलावा यहाँ से प्राप्त अन्य सीलों पर अंकित कुछ ऐसे चित्र भी मिलते हैं जो कायोत्सर्ग मुद्रा में नग्न ध्यानस्थ योगियों के हैं । इन चित्रों को जैन तीर्थंकरों या ऋषभदेव के चित्र माना गया है । इस मत का समर्थन रामप्रसाद चन्द्र ने किया है। सील मोहरों पर अंकित चित्र में योगी के सिर पर त्रिशूल और बैल के चिन्ह अंकित हैं। त्रिशूल रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र) का प्रतीक है और बैल ऋषभदेव का प्रतीक है । अन्य भी अनेक मोहरों पर जैनों के प्रतीकरूप चिन्ह पाये जाते हैं। एक मोहर पर योगमुद्रा-कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ी पुरुषाकृति के सिर पर पांच सर्पफणों वाली नग्नमूति अंकित है । श्वेतांबर प्राचार्य हेमचन्द्र के त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में सातवें तीर्थक र सुपादर्वनाथ के सिर पर पांच सर्पप.णों का वर्णन मिलता है। ऐसी पाँच फणों वाली सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा कंकाली टोला मथुरा की खुदाई से भी प्राप्त हुई है जो कर्जन म्युजियम मथुरा में सुरक्षित है। इससे स्पष्ट है कि अर्हत् ऋषभदेव, और अर्हत् सुपार्श्वनाथ की मान्यता सिंधुघाटी से भी पहले की है । जटाजूट सहित ऋषभ तथा पाँच फण सहित सुपार्श्व की मान्यता श्वेतांबर जैनों की है, दिगम्बर पंथ की न तो ऋषभ के सिर पर जटाजूट और न ही सुपार्श्व के सिर पर सर्पफणों की मान्यता है। अतः इससे यह भी स्पष्ट है कि यह प्राकृतियां श्वेतांबर जैन परम्परा के अनुकूल होने से वैदिक काल के पहले से ही यहाँ श्वेतांबर जैन धर्म का प्रचार तथा प्रसार था और व्रात्य, पणि, दास आदि जो जातियां पाहत् धर्मानुयायी थीं वे सब इसी परम्परा की थीं। इससे यह भी स्पष्ट है वर्तमान में श्वेतांबर जैन धर्म वैदिक काल में पाहत धर्म के नाम से प्रसिद्ध था । श्वेतांबर जैन धर्म नग्न और अनग्न दोनों प्रकार की अर्हत् प्रतिमाएं मानता है । हड़प्पा की खुदाई से कुछ खंडित मूर्तियां भी उपलब्ध हुई हैं। उन सबका अध्ययन करके श्री टी० एन० रामचंद्रन डायरेक्टर जनरल भारतीय पुरातत्त्व विभाग लिखते हैं कि
1. लोहानीपुर से प्राप्त ऋषम की नग्न मूर्तियों के सिरपर जटाजूट तथा कंधों पर लटकते हुए केश विद्यमान हैं । 2. देखें जैन भारती नामक त्रैमासिक पत्र के मुख्य पृष्ठ पर दिया गया चित्र । स्व० वनारसी दास जैन
लाहौर वालौं द्वारा संपादित)
(नोट सिर पर सर्पकण वाली जैन मूर्तियों को देखकर लोग मात्र पार्श्वनाथ की मूर्ति मान लेते हैं। परन्तु ७, ६, अथवा सहस्र फणी पार्श्वनाथ को और पांच अथवा तीन फणी सुपार्श्वनाथ की प्रतिमा होती है।
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