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जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत
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ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व तक प्राचीन माना जाने लगा है । दड़ो से प्राप्त अर्हत् ऋषभ की प्राकृतियाँ मिली हैं; की सीलों (मुद्रा) पर एक तरफ खड़े आकार में मूर्ति बनी हुई है, दूसरी तरफ बैल का चिन्ह बना है के प्रथम तीर्थकर हैं और उनका प्रतीक बैल है। इस ऐतिहासिक खोज के लिये जो राय बहादुर श्री रामप्रसाद जी चन्दा के नेतृत्व में खुदाई हुई थी, इससे प्राप्त इन सीलों के बारे में वे लिखते हैं कि
आधार पर एक बहुत पुरानी संस्कृति की जानकारी मिली है । इससे भारतवर्ष के इतिहास को हम लिख ग्राये हैं कि मोहन-जोउनका विवरण यहाँ दिया जाता है - मिट्टी भगवान ऋषभदेव की कायोत्सर्ग मुद्रा में श्रर्हत् ऋषभ जैनों के इस अवसर्पिणी काल
।
Mohan-Jo-Daro
(Sindh Five Thousand years ago)
"Not only the seated deities engraved on some of Indus seals are in yoga posture and bear witness to the prevalance of yoga in the Indus valley in that remote age, the standing dieties on the seals also show "Kayotsarga posture" of yoga. Further that "The Kayotsarga posture' is peculiary Jaina. It is posture not of sitting but of standing. In the Adipurana a Book XV Vol III Kayotsarga posture is described in connection with the penences of Rishbha. A standing image of Jina Rishbha Kayotsarga posture on slab showing four such images assignable to the 2nd century A. D. in the Curzon Museum of Archaeology, Mathura is reproduced in figure 12. Among the Egyptian sculptures of time of the early dynasties there are standing statues with arms hanging on two sides. Although these early Egyptian statues and archaic Greek Kaurai show nearly the same pose, but they lock the jealing of abandon that characterises the standing figures on the Indus seal and images of Jainas in the Kayotsarga posture. The name Vrishbha means bull and bull is the emblem of Jina Rishabha.1
अर्थात् - सिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकित न केवल बैठी हुई देवमूर्तियां योग मुद्रा हैं और उस सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योग मार्ग के प्रचार को सिद्ध करती हैं, बल्कि खड़ी देवमूर्तियाँ भी योग की कायोत्सर्ग मुद्रा में हैं और ये कायोत्सर्ग ध्यान मुद्राएं विशेषतया जैन हैं । श्रादिपुराण में इस कायोत्सर्ग मुद्रा का उल्लेख वृषभ या ऋषभदेव के तपश्चर्या के सम्बन्ध में बहुधा हुआ है। एक सील पर चार खड़ी मूर्तियां कायोत्सर्ग मुद्रा में ऋषभ की अंकित हैं । यह ( मथुरा के कंकाली टीले से प्राप्त ) ईसा की दूसरी शताब्दी की जिन ऋषभ की न० १२ की प्रतिमा से मिलती हैं । जो प्रतिमा पुरातत्त्व विभाग के कर्जन म्युजियम मथुरा में सुरक्षित है ।
1.
2.
Modern Review, August 1932.
मथुरा से प्राप्त कंकाली टीले में से जिन मूर्तियां नग्न और अनग्न दोनों प्रकार की मिली हैं। उन पर जो लेख अंकित हैं वे सब श्वेताम्बर जैनों द्वारा निर्माण करवाकर श्वेतांबर जैनाचार्यों, मुनियों द्वारा प्रतिष्ठित की गई हैं । यहाँ के इस ध्वंस किये गये प्रसिद्ध स्तूप की स्थापना श्वेतांबर जैनों द्वारा ईसा पूर्व की गई थी । यह स्तूप देवनिर्मित माना जाता था (जैनागम आवश्यक चूर्णी) तथा प्रतिष्ठा कराने वालों के गण, कुल, शाखाएं श्वेतांवरमान्य आगम कल्पसूत्र से बराबर मेल खाते हैं ।
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