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________________ १३ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म जैनधर्म के नाम १- प्राग्वैदिककाल से पार्श्वनाथ तक श्रमण, मुनि, यति, मार्हत् धर्म, २ - बौद्ध ग्रंथों तथा अशोक के शिलालेखों में यह निग्गंठ (निग्रंथ ) धर्म के नाम से प्रसिद्ध रहा । ३- इंडोग्रीक और इंडोसिथियन युग में श्रमण धर्म के नाम से देश-विदेशों में पहचाना जाता रहा । ४– - पुराण काल में जिन या जैनधर्म के नाम से विख्यात हुआ | जैनागम तथा जैन शास्त्रों में इसके ५जिन शासन, ६ -- जैन तीर्थ, ७ - स्याद्वादी, ८--- अनेकांतवादी ह - श्रार्हत्, १० - श्रमण, ११निर्ग्रन्थ, १२ - जैन आदि नाम मिलते हैं । जिस समय दक्षिण में भक्ति आन्दोलन जोर पकड़ रहा था उस समय वहाँ पर १३ - भव्यधर्म के नाम से प्रसिद्ध था । १४ - सिंध, गांधार, पंजाब में विक्रम के पूर्णकाल से विक्रम की बीसवीं शताब्दी तक भावड़ा नाम से प्रसिद्ध रहा । १५- बंगाल और बिहार में सराक (श्रावक ) के नाम से पहचाना जाता था । १६- सरावग, १७ - सरावगी, १८ - महाजन के नाम से राजस्थान में प्राज भी प्रचलित है । भागवत में १६ - वातरशना, २०- वातरसन के नाम से प्रसिद्ध था । वर्तमान शोधकर्ताओं ने उत्खनन से मिली वस्तुनों के प्रतिरिक्त मानववंश शास्त्र, भाषा, धार्मिक विचार, साहित्य श्रौर उपास्यदेव प्रादि साधनों का भी ऐतिहासिक शोध-खोज में उपयोग किया है । जिससे वे लोग इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि वैदिक संस्कृति के पूर्ण जो वैदिक आर्येतर जातियां (साध्यादि) भारत में विद्यमान थीं, उनके रहन-सहन मकान आदि सब सुविधाओं से युक्त थे | स्थापत्यकला में उनकी अच्छी प्रगति थी । श्री देवदत्त शास्त्री 'चिन्तन के नये चरण' में लिखते हैं कि - साध्यों ने सरस्वती और सिन्धु के संगम पर एक विज्ञान भवन स्थापित किया था । इस विज्ञान भवन में बैठकर उन्होंने समस्त ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार किया था । कुछ वर्ष पहले समझा जाता था कि भारतवर्ष की सबसे पुरानी संस्कृति वैदिक संस्कृति है और सबसे पुरानी जाति वैदिक आर्य है । किन्तु ईस्वी सन् १९२२-२३ की खोज ने भारत के इतिहास को कुछ और अधिक प्राचीनता प्रदान की है । ईस्वी १९२२-२३ में सिन्ध (पाकिस्तान ) के लरकाना जिले के मोहन-जो-दड़ो स्थित एक टीले की खुदाई की गई है । इस खुदाई में जो सामग्री प्राप्त हुई है उसके आधार पर पूर्वस्थित एक के बाद दूसरे कई नगरों के विषय में जिस संस्कृति की जानकारी प्राप्त हुई है, वह संस्कृति ईसा पूर्व ३००० वर्ष पहले की बतलाई है । बाद में पश्चिम पंजाब में माऊंटगुमरी नगर के निकट हड़प्पा नामक स्थान की खुदाई हुई । इस प्रकार सिंघ, बिलोचिस्तान, पश्चिमी पंजाब, कच्छ, वायव्य सीमा प्रांत, अफगानिस्तान, सौराष्ट्र, राजपुताना आदि प्रदेशों में चन्हु-दड़ो, लोहुज-दड़ो, कोहीरो, नम्री, नाल, रोपड़, अलीमुराद, सक्कर-जो-दड़ो, काहु-जो-दड़ो प्रादि भिन्न-भिन्न साठ स्थलों की ( मात्र सिंधु नदी तटवर्ती प्रदेशों में ही ऐसा नहीं है परन्तु जेहलम नदी और ब्यासा नदी के प्रदेशों तक ) विस्तृत की गई खुदाई से जिस प्राचीन संस्कृति की सामग्री प्राप्त हुई है, इस संस्कृति को पुरातत्त्वज्ञों ने सिन्धुघाटी की संस्कृति का नाम दिया है। पश्चिम में मकराना, दक्षिण में सौराष्ट्र, उत्तर में हिमालय पर्वत की शिवालिक पर्वतमालाओं तक सिंधु घाटी की संस्कृति की पुष्कल सामग्री प्राप्त हुई है। जिसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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