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जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमते ब्रह्म, ब्राह्मण तथा यज्ञ-याग विधान आदि को नहीं मानते थे। किन्हीं विद्वानों के अनुसार ये दलित और हीन वर्ग के थे । उनकी यह मान्यता ठीक प्रतीत नहीं होती । क्योंकि पंचवीशब्राह्मण में (१७/१) व्रात्यों के लिये यज्ञ का विधान किया गया है। वस्तुत: व्रात्य लोग व्रतों को मानते थे, अर्हतों की उपासना करते थे और प्राकृत बोलते थे । सायण ने व्रात्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि ;
"कचिद्विदूत्तमं महाधिकारं पुण्यशीलं विश्वसम्मान्यं कर्मपराह्मणविद्विष्टं व्रात्यमनुलक्ष्य वचनमिति मन्तव्यम् ।
अर्थात्---वहां उस व्रात्य से मन्तव्य यह है कि --जो विद्वानों में उत्तम, महाधिकारी, पुण्यशील और विश्व पूज्य है तथा जिससे कर्मकाण्डी ब्राह्मण विद्वेष करते हैं ।
अर्थववेद में व्रात्य का अर्थ घूमने वाला साधू किया है । व्रात्यकांड में पूर्णब्रह्मचारी को प्रात्य कहा गया है। इसी वेद में व्रात्य की भाँति महावृष भी एक जाति कही है।' महावृष लोग आर्य जाति के कहे गये हैं।
इससे पता लगता है कि वैदिक काल में ब्राह्मण वैदिकधर्म विरोधी जातियां भी थी जो प्राकृतिक नियमों से सृष्टि का वर्तन-प्रवर्तन मानतीं थीं। वस्तुतः यह प्राध्यात्मवादी परम्परा थी। आत्मा को सर्वश्रेष्ठ मानती थी और यह कहती थी कि आत्मा ही सर्वोपरि है तो अलग से ब्रह्म या ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता रह जाती है । यद्यपि वैदिक युग में ब्राह्मण जाति की प्रधानता थी, पर उस समय ३–साध्यों का पूरे समाज पर पूर्ण प्रभाव एवं नियन्त्रण था। प्रागैतिहासिक काल में साध्यों को देवद्रोही कहा जाता था। ये लोग भी संसार की रचना प्राकृतिक नियमों से मानते थे। इस प्रकार वेदों में वेद विरोधि पणि, व्रात्य, दास-दस्यु, साध्य और महावृष इन पांच जातियों का नाम पाया जाता है ।
इससे यह तो पता चलता है कि जिस युग में वेदों की सृष्टि हुई थी और वैदिक आर्य भारत आये थे उस समय यहां पार्हत् लोग विद्यमान थे और वे वेद विरोधी थे। अाहत् और श्रमण संस्कृति को मानने वाले जैनधर्मानुयायी कहलाते हैं; यह बात हम पहले भी स्पष्ट कर चुके हैं । मत्स्यपुराण में जैनधर्म को वेदबाह्य कहा है जो वेदों को नहीं मानता। कहना होगा कि अत्यन्त प्राचीनकाल से ही जैनधर्म पंजाब में भी विद्यमान था जो आज तक विद्यमान और प्रचलित है । मात्र इतना ही नहीं परन्तु सारे भारत तथा भारत से बाहर के अन्य देशों में भी सर्वत्र आर्हत् धर्म ही प्रधान था। ये आर्हत् भारत के मूल निवासी तथा भारतीय आर्य जाति के थे।
वैदिककाल में पंजाब की पाँच नदियों और गंगा-यमुना के निकटवर्ती प्रदेश में वैदिक पार्यों का निवास था। इन सात नदियों के कारण इस प्रदेश का नाम सप्तसैंधव पड़ा। विद्वानों का मत है कि विश्व के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद की रचना इसी प्रदेश में हुई है।
1. सूर्यकान्तः वैदिक कोश वाराणसेय हिन्दू विश्वविद्यालय १९६३ । 2. अथर्ववेद ५/२२; ४-५;८ । 3. देवदत्त शास्त्री कृत चिंतन के नये चरण पृष्ठ ६७-६८ ।
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