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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म प्राग्वैदिक आर्हत्-श्रमण सस्कृति अहिंसा प्रधान प्रार्हत् संस्कृति और यज्ञ प्रधान वैदिक संस्कृति में वैदिककाल में तथा उसके पूर्व भी विरोध दिखलाई देता है। व्रात्य और साध्य लोग पाहत् श्रमण संस्कृति को मानने वाले थे। वे ईश्वर को सृष्टिकर्ता और कर्मफल प्रदाता नहीं मानते थे। उनका विश्वास था कि सृष्टि प्राकृतिक नियमों से बन्धी हुई है। प्रकृति के नियमों के ज्ञान से मनुष्य भी नये संसार की रचना कर सकता है। मनुष्य की शक्ति सबसे बड़ी शक्ति है । वह समस्त शक्तियों से बड़ी है। वह सब शक्तियों से श्रेष्ठ है। आर्हत् लोग कर्म में विश्वास करते थे, और यही उनके सृष्टिकर्ता न मानने का कारण था। ये लोग मुख्य रूप से क्षत्रीय थे। राजनीति की भांति वे धार्मिक प्रवृत्तियों में भी विशेष रुचि रखते थे और समय पड़ने पर वादविवादों में भी भाग लेते थे। वे अर्हत् के उपासक थे। उनके देवस्थान पृथक थे और पूजा अवैदिक थी। आज यही संस्कृति जैनधर्म के नाम से पहचानी जाती है। यह संस्कृति अहिंसासमता प्रधान तथा कर्मप्रधान थी, पुनर्जन्म को मानती थी, जीवों द्वारा कृत कर्मों का फल उन्हें स्वतः ही मिलता है, कर्मफल देने में अन्य कोई भी शक्ति का सम्बन्ध नहीं है, इस बात का इसे दृढ़ विश्वास था । यह संस्कृति प्राध्यात्म प्रधान थी।
वेदों में अर्हत् को विश्व की रक्षा करने वाला और श्रेष्ठ कहा है ।। शतपथ ब्राह्मण में अर्हत् का आह्वान किया गया है और कई स्थानों पर उसे श्रेष्ठ कहा है। ऋग्वेद में दो स्थलों पर स्पष्ट रूप से 'वृषभ' परमात्मा के रूप में वर्णित हैं । वृषभ का दूसरा नाम ऋषभ भी है। इसी प्रकार अरिष्टनेमि का अर्थ "हानि रहित नेमिवाला त्रिपुरवासी असुर पुजित सुत और थोतों का पिता कहा गया है। किन्तु शतपथ ब्राह्मण में अरिष्ट का अर्थ अहिंसा की धुरी अर्थात् अहिंसा का प्रवर्तक किया है । अर्हत् वृषभ-ऋषभ को वैदिक साहित्य में प्रशस्त कहा है। वृषभ को धर्म रूप ही माना गया है और जैनागमों में ऋषभ को धर्म का आदि प्रवर्तक कहा है बृहस्पति की भांति अरिष्टनेमि' की स्तुति की गई है और जैनागमों में अरिष्टनेमि को बाईसवाँ तीर्थंकर माना है।
आहत-श्रमण धर्म को मानने वाली जातियां वेदों में वर्णन है कि वात्य और पणि लोग आर्हत् धर्म को मानने वाले थे
१. पणि-भारतवर्ष के आदिम व्यापारी थे । वे अत्यन्त समृद्ध और सम्पन्न थे। धन में ही नहीं ज्ञान में भी बढ़े चढ़े थे। इसलिये यज्ञ-याग परायण संस्कृति को नहीं मानते थे। वे ब्राह्मणों को हवि, दक्षिणा, दान नहीं देते थे। देश का लगभग सभी व्यापार इन्हीं के हाथों में था। वे कारवां (काफिले) बनाकर अरब और उत्तरी अफ्रीका को जाते थे। बाद में चीन तथा अन्य देशों में भी पणिक लोगों के व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किये थे।
२. ब्रात्य-ये लोग आर्य तथा क्षत्रीय थे। उन्हें अब्राह्मण क्षत्रीय कहा जाता था। वे 1. ऋग्वेद २/२३/१०; २/३/१,३; ७/१८/२२; १०/२/२२,१६,७; १०/८५/४; ए ओ ५/२/२;
शां० १५/४, १८/२, २३/१;ए ४/२ । 2. ३/४/१/३-६; ते० २/८/६/६; ते प्रा० ४/५/७; ५/४/१० आदि 3. ऋग्वेद २/५८/३;४/५/१] 4. अरिष्टनेमि स्वास्ते नो वहस्पतिर्दधान।
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