________________
जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत
तात्पर्य यह है कि ऋषि की जो इन्द्रियां पराङ्गमुखी थीं वे उनके ज्ञानयुक्त ज्ञानी नेता केशी ऋषभदेव के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गई।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में भी ऋषभदेव की जटाओं का वर्णन है। इस प्रकार ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि भागवत के ऋषभ और वातरशना श्रमण ऋषि एवं केसरियानाथ ऋषभ तीर्थकर और उनका निग्रंथ सम्प्रदाय एक ही सिद्ध होते हैं । क्योंकि ऋषभ और केशी का एक स्थान पर वैदिक ऋचा में उल्लेख पाया है, जिससे यह अनुमान निकलता है कि वात रशना (योग की प्रक्रिया वाले) मुनियों, निग्रंथ साधुअों तथा ऋषियों के नायक केशी मुनि ऋषभदेव हैं, जो अर्हत् (तीर्थकर) हैं। इससे जैन धर्म की प्राचीनता और सर्व विश्वप्रियता, सर्वत्र व्यापकता पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।
सिन्धुघाटी में लारकाना जिलांतर्गत मोहन-जो-दड़ो तथा पंजाब में हरप्पा (माऊंटगुमरी नगर के निकट) की खुदाई से जैनधर्म की प्राचीनता के विषय में और भी अधिक समर्थन मिला है । (वर्तमान में ये दोनों स्थान पाकिस्तान में हैं) वहाँ जो ऋषभदेव की कायोत्सर्ग ध्यानावस्था की मूर्तियां मिली हैं, और उन पर बैल के चित्र खुदे हुए मिलते हैं । उस से जैनधर्म की प्राचीनता की कड़ी कहां तक जुड़ जाती है विचार करने से वैदिककाल से भी यह धर्म प्राचीनतम सिद्ध होता है। सिंध (पाकिस्तान) में मीरपुर खास के पास काहू-जो-डेरो की खुदाई में भी अत्यन्त प्राचीन जैन-मूर्तियां मिली हैं।
ऋषभदेव केवल भारतीय उपास्यदेव ही नहीं थे, पर भारत के बाहर भी उनका प्रभाव होना चाहिये; ऐसा सायप्रस से हुई खुदाई में ऋषभदेव की जो कांस्यमूर्ति मिली है, उससे तथा अन्य शोधों से भी पता चलता है कि इजिप्त (मिस्र), सुमेरियन आदि संस्कृतियों में श्रमण संस्कृति का प्रभाव था । उन प्राचीन संस्कृतियों का अध्ययन करने से पता चलता है कि वे बहुत अंशों में जैन संस्कृति से मिलती जुलती रही हैं ।
प्रागैतिहासिक काल में प्रार्हत् श्रमण संस्कृति और उस संस्कृति के नायक अर्हतों ने वैदिक संस्कृति पर प्रभाव डाला था तथा वैदिक धर्म में श्रमण संस्कृति के प्रभाव से उपनिषद, भारत, भागवत आदि ग्रन्थों की रचना हुई। उपर्युक्त वैदिक साहित्य में श्रमण संस्कृति के प्रभाव के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
प्राग्वैदिक संस्कृति और वैदिक संस्कृति में भेद अब हमें यह देखना होगा कि उस समय की वैदिक संस्कृति और आर्हत् संस्कृति में किनकिन बातों में मतभेद था ? वेदों में जिस यज्ञप्रधान संस्कृति के दर्शन होते हैं उसमें वह वेद और ब्रह्म को सर्वश्रेष्ठ घोषित करती है और ब्रह्म प्राप्ति के लिए यजनकर्म को परमपुरुषार्थ निरूपण करती है। यह संस्कृति ईश्वर को सृष्टिकर्ता और संसारी जीवों को कर्मफल प्रदाता मानती है । वह ईश्वर सर्वयापी, अरूपी, सर्वज्ञ, नित्य, एक और अनादि-अनन्त काल तक विद्यमान रहता है । ये बार्हत् लोग जिस संस्कृति को मानते हैं वह आज भी भारत में वैदिक संस्कृति के नाम से प्रसिद्ध है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org