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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
ऋग्वेद के इन केशी तथा वातरशना मुनियों की साधनामों की श्रीमद्भागवत वातशरना श्रमण ऋषि और उनके अधिनायक ऋषभ तथा उनकी साधनामों की पारस्परिक तुलना भारतीय आध्यात्मिक साधना और उसके प्रवर्तक के निगढ़ प्रागैतिहासिक अध्याय को बड़ी सुन्दरता से प्रकाश में लाती है। इस प्रकार ऋग्वेद के केशी व वातरशना मुनि, एवं श्री भागवत के ऋषभ तथा वातरशना श्रमण ऋषि, और केशरियानाथ, तथा ऋषभ तीर्थंकर और उनका निग्रंथ सम्प्रदाय एक ही सिद्ध होते हैं।
यथार्थतः समस्त तीर्थंकरों में केवल ऋषभदेव की ही मतियों के सिर पर कुटिल तथा कंधों तक लटकते हुए केशों का रूप दिखलाया जाता है। ऋषभदेव के केशरियानाथ के नामांतर में यही रहस्य निहित मालूम होता है । केसर, केश और जटा ये तीनों शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। जिस प्रकार सिंह अपने केशों के कारण केसरी कहलाता है, उसी प्रकार केशी और केसरियानाथ ऋषभदेव के वाचक प्रतीत होते हैं। राजस्थान के उदयपुर जिले में धुलेवा गांव (वर्तमान में श्री रिषभदेव गांव) में श्वेताम्बर जैनों का "एक तीर्थ श्री केसरियानाथ" के नाम से प्रसिद्ध है । जिस में भगवान ऋषभदेव की एक अत्यन्त प्राचीन सातिशय काले पाषाण की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। केसरियानाथ पर जो केसर चढ़ाने की विशेष मान्यता प्रचलित है, वह नाम साम्य के कारण प्रचलित प्रतीत होती है। ऋग्वेद के निम्नाकित ऋचा से केशी और ऋषभ के एकत्व का ही समर्थन होता है।
कर्कदवे वृषभो युक्त आसीद, प्रववाचीत् सारथीरस्य केशी । दधेर्युक्तस्य द्रवतः सहानस, ऋच्छांतिम्मा निष्पदो मुद्गलानीम् ॥
(ऋग्वेद ६, १०२, ६) जिस सूक्त में यह ऋचा आई है उसकी प्रस्तावना में निरुक्त के जो "मुद्गलस्य हप्ता गाव:" आदि श्लोक आये हैं उनके अनुसार-मुद्गल ऋषि की गायों को चोर ले गये थे, उन्हें लौटाने के लिए ऋषि ने केशी ऋषभ को अपना सारथी बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गौएं आगे को न भाग कर पीछे की ओर लोट पड़ी।
प्रस्तुत ऋचा का भाष्य करते हुए सायनाचार्य ने पहले तो वृषभ तथा केशी का वाच्यार्थ पृथक बतलाया है, किन्तु फिर उन्होंने प्रकारान्तर से कहा है :
___"अथवा सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्ट केशो वृषभोऽवावचीत भृशम शब्दयत्" इत्यादि।
"सायन के इस अर्थ को तथा निरुक्त के उक्त कथा प्रसंग को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत गाथा का निम्न अर्थ प्रतीत होता है
"मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान नेता) केशी वृषभ जो शत्रुनों का विनाश करने के लिये नियुक्त थे उनकी वाणी निकली जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की गौएं (इंद्रियां) जुते हए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड़ रही थीं, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की स्वात्मवृत्ति) की ओर लौट पड़ी।"
1. देखें डा. हीरालाल जैन का "मादि तीर्थंकर की प्राचीनता तथा उनके धर्म की विशेषता" शीर्षक लेख ।
(अहिंसा वाणी वर्ष ७ अंक १-२, १६५७ ईस्वी)
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