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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत की यह स्तुति निम्न प्रकार है-"केशी विश्व स्वशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ।" (ऋग्वेद ११, १३६, १) अर्थात्-केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन कराता है और केशी ही प्रकाशमान ज्ञानज्योति' कहलाता है। सामान्यतः केशी का अर्थ केशधारी होता है, पर सायनाचार्य ने "केशस्थानिय रश्मियों को धारण करने वाला' किया है, इससे सूर्य का अर्थ निकाला है। परन्तु प्रस्तुत सूक्त में जिन वातरशना साधुओं की साधनामों का उल्लेख है, उनके साथ इस अर्थ की कोई संगति नहीं बैठती। केशी स्पष्टतः वात रशना मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं। जिनकी साधना में मलधारण, मौनवृत्ति और उन्मादभाव (परमानन्द दशा) का विशेष उल्लेख है । सूक्त में आगे उन्हें ही-मुनिर्देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः ।" अर्थात्-देवों के देव मुनि उपकारी तथा हितकारी सखा बतलाया गया है । भगवान् ऋषभदेव के केशों का अंकन जैन मूर्तिकला की एक प्राचीनतम परम्परा है। श्वेतांबर जैनों के मान्य आगम कल्पसूत्र की टीका में (व्याख्यान ७) श्री ऋषभदेव के सिर पर केशों की विद्यमानता का उल्लेख है - यावत् आत्मवैव चतुमौष्टिक लोचं करोति, चतुसृभिर्मष्टिभिर्लोचे कृते सति प्रविशिष्टं एकां मुष्टि सुवर्णवर्णयोः स्कन्धयोरुपरि लुठन्ति कनककलशोपरि विराजमानानां नीलकमलमिव विलोक्य हृष्टचित्तस्य शक्रस्य प्राग्रहेण रक्षत्वान् । अर्थात्-श्री ऋषभनाथ ने गृहत्याग कर दीक्षा ग्रहण करते हुए 'अपने आप चारमुष्टि लोच की। चार मुष्टिलोच कर लेने पर सोने के कलश पर विराजमान नीलकमल माला के समान बाकी रहे हुए एक मुष्टि प्रमाण सुनहरी बालों को कन्धों पर गिरते हुए देखकर प्रसन्न चित्त वाले इन्द्र के प्राग्रह करने से प्रभु ने रहने दिए। इसकी पुष्टि भक्तामर स्तोत्र के १०वें श्लोक की प्राचार्य गुणाकर सूरि ने अपनी की हुई विवृत्ति में भी की है। यथा "श्री ऋषभप्रभुः शक्राभ्यर्थनया चातुर्मुष्टिकं लोचं करोति ।" अर्थात्-श्री ऋषभदेव प्रभु ने शक्रेन्द्र की प्रार्थना से चार मुष्टि लोच की।' जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि श्री ऋषभदेव ने पंचमष्टि लोच की थी जिससे ऋषभदेव के केशों का सर्वथा अभाव था। दिगम्बर प्राचार्य जिनसेन ने मादि पुराण में लिखा है कि :ततः पूर्वमुखं स्थित्वा कृत सिद्ध नमस्क्रियः । केशानलुचदाबद्ध पल्यांकः पंचमुष्टिकम् ॥ निलुच्य बहुमोहामवल्लरीः केशवल्लरीः । जातरूपधरो धीरो जैनी दीक्षामुपाददे ॥ पर्व १७ श्लोक ॥२००-२०१॥ अर्थात्-तदनन्तर भगवान् (ऋषमदेव) पूर्व दिशा की ओर मुंह कर पद्मासन में विराजमान हुए और उन्होंने पंचमुष्टि केश लोच की। धीर भगवान् ने मोहनीय कर्म की मुख्य लतामों के समान बहुत सी केश रूपी लताओं को लोचकर यथाजात अवस्था को धारण कर जिनदीक्षा ग्रहण की। इससे यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा श्री ऋषमदेव के सिर पर केशों का सर्वया अभाव मानती है।। अतः यह बात निर्विवाद है कि श्री ऋषभदेव की केशों वाली मतियां भी श्वेतांबर जैनों की मान्यता वाली होने के कारण उन्हीं द्वारा निर्मित और प्रतिष्ठित की गई हैं। ऐसी प्रतिमाएं कंकाली टीले मथुरा के उत्खनन से भी प्राप्त हुई है जो श्वेतांबर प्राचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित की गई थीं ऐसे लेख अंकित हैं। 1. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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