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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जनधर्म अर्हत् शब्द ऋग्वेद में भी आया है और इसे विश्व की रक्षा करने वाला श्रेष्ठ कहा है । इस उल्लेख से लगता है कि ऋग्वेद रचना काल से पहले से ही भारत में प्रार्हतों का प्रभाव था। प्रार्हतों के उपास्य ऋषभदेव को वैदिक आर्यों ने अपने यहाँ पूज्य पुरुषों में स्थान दिया है । आगे चलकर ऋषभदेव ने ब्राह्मणों के २४ अवतारों में स्थान पा लिया । ऋषभदेव श्रमणों की तरह वैदिक ब्राह्मणों के भी आदरणीय बने । ___ वेदों में ऋषभ शब्द भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। रुद्र, शिव, मेघ, बैल, सांड और अग्नि के रूप में भी इसका उल्लेख हुमा है। कई स्थानों में कामनाओं की पूर्ति करनेवाला या कामनाओं की वर्षा करनेवाला माना गया है। ये सब नाम भी अर्हत् ऋषभदेव के ही अर्थवाची हैं। किन्तु ऋग्वेद में दो जगह ऋषभदेव परमात्मा के रूप में वर्णित है। यदि जैनागमों में ऋषभदेव को इस अवसर्पिणी काल में धर्म का आदि प्रवर्तक कहा है तो भागवत में ऋषभदेव को भवतार रूप में मानकर उनका उद्देश्य वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करने वाला बतलाया है । श्रीमद्भागवत में ऋषभावतार का एक अन्य हेतु भी बतलाया है-"प्रयमोवतारो रजोप्लुत कंवल्यो प्रशिक्षणार्थः । अर्थात् भगवान का यह ऋषभावतार रजोगुण व्याप्त मनुष्यों को कैवल्य (मोक्षमार्ग) की शिक्षा देने के लिए हुआ था। किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उप्लुप्त अर्थात् रजोधारण-करन (मलधारण-करन) वृत्ति द्वारा कैवल्य की शिक्षा के लिए हुआ था । जैन साधुओं के प्राचार में अस्नान, अदन्तधावन, तथा मलपरिषह आदि के द्वारा रजोधारण वृत्ति को संयम का (साधुचर्या का) एक आवश्यक अंग माना है। __भारत के प्राचीनतम साहित्य से स्पष्ट है कि वातरशना (प्राणायाम) तथा रजोधारण वृत्ति वाले साधुओं की परम्परा बहुत प्राचीन है । अष्टमोऽष्टक ऋग्वेद में उल्लेख है कि मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला । वातस्यानु धांजि यति यद् देवासो अविक्षत ॥२॥ उन्मादिता मौने येन वाताँ आ तास्थिता वयं । शरीरेदस्माकं यूयं मर्ता सः अभिपश्यथ ।।३।। (ऋग्वेद ११, १३६, २-३) अर्थात्-प्रतिन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वे पिंगलवर्ण दिखलाई देते हैं । जब वे वायु की गति को प्राणोपासना (प्राणायाम) द्वारा धारण कर लेते हैं तब वे अपने तप की महिमा से देदीप्यमान होकर देवतास्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । वातरशना मुनि प्रकट करते हैं-समस्त लौकिक व्यवहार को छोड़कर हम मौन वृत्ति को उन्मतवत् 'परमानन्द सम्पन्न' वायुभाव अशरीरी ध्यान वृत्ति को प्राप्त होते हैं । तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पाते हो किन्तु हमारे सच्चे आभ्यंतर स्वरूप को नहीं। वातरशना मुनियों के वर्णन के प्रारम्भ में ऋग्वेद में 'केशी' नामांकित स्तुति की गई है। जो इस तथ्य की पुष्टि करती है कि 'केशी वातरशना मुनियों के प्रधान थे'। केशी 1. डॉ. राजकुमार जैन ने अपने ऋषभदेव और शिवसम्बन्धी प्राव्य मान्यताओं के विषय में विस्तृत स्पष्टीकरण किया है। शिव और ऋषभ एक व्यक्ति थे. इस विषय पर हम पागे प्रकाश डालेंगे। 2. भागवत स. ५०६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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