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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत भीतरी (काम-कषाय आदि) बाहरी जर (धन-दौलत आदि) जोरु (स्त्री-माता पिता आदि समस्त परिवार) तथा ज़मीन (खेती, मकान, दुकान, धरती आदि अचल सम्पत्ति) परिग्रह का सर्वथा त्यागी श्रमण, भिक्षु, साधु है। युनानी लेखकों ने इण्डोग्रीक और इण्डोसिंथियन रूप में ब्राह्मण और श्रमण दार्शनिकों का उल्लेख किया है। कहने का आशय यह है कि अनेक प्रमाणों से प्रमाणित है कि वैदिक आर्यों के भारत आने से पहले तथा वेद रचना काल से पूर्व इस देश में जैनधर्म प्रचलित था। वैदिक काल में यह आर्हत् नाम से प्रसिद्ध था। आर्हत् लोग अर्हतों के उपासक थे। वे वेदों और ब्राह्मणों को नहीं मानते थे। ईश्वर को सृष्टिकर्ता भी नहीं मानते थे। जैन वाङ्गमय में अर्हत् की उपासना का बड़ा महत्व बतलाया है। यथा-- ते जन्मभाजः खलु जीवलोके, येषां मनो ध्यायन्ति अर्हन्नाथम् । वाणी गुणान् स्तौति कथां शृणोति श्रोत्रद्वयं ते भवमुत्तरन्ति ॥ अर्थात् -- जिनका मन अर्हत् का ध्यान करता है, जिनकी वाणी उनके गुणों का स्तवन करती है और जिनके दो कान उनकी कथा सुनते हैं, इस लोक में वास्तव में उन्हीं का जन्म सार्थक है तथा वे ही संसार को पार करके मोक्ष प्राप्त करेंगे। पापं लुपति दुर्गतिदलयति व्यापदयत्यापदं, पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति निरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीति प्रसूते यशः स्वर्ग यच्छति निति च रचयत्यचाहतां निर्मिता ॥ अर्थात्-श्री अर्हतों की पूजा पापों का लोप करती है, दुर्गति का दलन करती है, आपदाओं का नाश करती है, पुण्य का संचय करती है, श्री की वृद्धि करती है, आरोग्यता से पवित्र करती है, सौभाग्य को देती है, प्रीति को बढ़ाती है, यश को उत्पन्न करती है, स्वर्ग को देती है और अन्त में मोक्ष की रचना करती हैं । इससे स्पष्ट है कि जैनधर्मानुयायी अर्हतों को अपना इष्टदेव मानते हैं और उनकी उपासना से सर्व प्रकार के कल्याणों की कामना रखते हैं। इसीलिए ये आर्हत् के नाम से प्रसिद्धि पाये। ग्रंथः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरति दुष्टयोगाश्च । तज्जय-हेतोरशठ संयतते यः स निर्ग्रन्थः ।। (तत्त्वार्थकर्तावाचकमुख्य उमास्वाति कृत प्रशमरति प्रकरण १४२) अर्थ-अष्ठकर्म, मिथ्यात्व, अविरति, दृष्टयोग ये ग्रंथ कहलाते हैं। जो इन्हें जीतने के लिये सरल भाव से प्रयत्न करता है वह निग्रंथ है। आजकल जैनों के दिगम्बर सम्प्रदाय में मान नंगे साधु को ही निग्रंथ मानने की एकान्त धारणा है। परन्तु इस संप्रदाय के प्राचीन मूलाचार ग्रंथ वट्टकेराचार्य में निग्रंथ शब्द का नंगे अर्थ में कोई संकेत नहीं पाया जाता । यथा-निग्रंथ शब्द के पर्यायवाची शब्द 'समणो त्ति संजदो त्ति रिसि मुणि साधु ति वीदरागो त्ति । णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतो यति ॥ १२० ।। अर्थात्-१-श्रमण, २-संयत, ३-ऋषि, ४-मुनि, ५-साधु, ६-वीतराग, ७-सुविहित, ८-अनगार, ६-भदंत १०-दंत, ११-यति ये सब निग्रंथ के पर्यायवाची हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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