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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म पागम अर्हतों (तीर्थंकरों) द्वारा कहे गये हैं। जैन, बौद्ध, आजीवक (गोशालामती) आदि मतानुयायी भिक्षुत्रों को श्रमण नाम से पहचाना जाता है। बौद्धधर्म की स्थापना तथागत बुद्ध ने की, प्राजीवक मत की स्थापना गोशाला ने की। ये दोनों तीर्थंकर महावीर के समकालीन थे । इसलिये इन दोनों से पहले जो श्रमण संस्कृति भारत में विद्यमान थी उसके जैन संस्कृति होने के ही अधिक प्रमाण व संभावना है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व हुआ था। इसलिये जैन श्रमणसंस्कृति बौद्ध और आजीवक श्रमण संस्कृतियों से प्राचीन होने के ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं।
- तथागत गौतम बुद्ध ने पहले भगवान पार्श्वनाथ की शिष्य परम्परा में जैन श्रमण की दीक्षा ली थी, किन्तु उनसे इस निर्ग्रन्थ कठिन चर्या का पालन न हो सका, इसलिये उन्होंने इस मार्ग का त्याग कर मध्यम मार्ग रूप बौद्ध धर्म की स्थापना की। इस बात की पुष्टि बुद्ध की तपः चर्या से हो जाती है। तथागत गौतम बुद्ध ने भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा को स्वीकार किया था, इस बात को बौद्ध विद्वान अध्यापक धर्मानन्द कौसाम्बी ने भी अपनी पुस्तक 'पार्श्वनाथा चा चातुर्याम धर्म' में स्वीकार किया है ।' एवं जैनों की अनुश्रुतियों में भी बुद्ध के जैन श्रमण होने के उल्लेख मिलते हैं।
अर्हत् पार्श्वनाथ से भी पहले जिन का उल्लेख प्राचीन काल में मिलता है वे अरिष्टनेमि, अजितनाथ तथा ऋषभदेव जैनियों के उपास्यदेव बाई सर्वे- दूसरे और पहले तीर्थंकर थे । इसलिये अधिक संभव यही लगता है कि प्राग्वैदिक काल में भारत में वैदिक आर्यों के भारत पाने से पहले जो श्रमण संस्कृति थी, वह जैन संस्कति थी जो पाहत नाम से भी प्रसिद्ध थी। जैन साहित्य भी इसी मत की पुष्टि करता है कि जैनधर्म अत्यंत प्राचीन काल से विद्यमान चला आ रहा है । जैनों के परमपवित्र नवकार मन्त्र में सर्वप्रथम अर्हतों को ही नमस्कार किया गया है। "नमोअरहंताणं" अर्थात् अर्हतों को नमस्कार हो। अर्हतों शब्द बहुवचन है। इससे स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव से लेकर अनेक अर्हत् जैनधर्म में हुए हैं। अर्हतों के धर्म को मानने वाले तथा उनके उपासक आर्हत् कहलाते थे। आईत् परम्परा की पुष्टि श्रीमद्भागवत, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, स्कन्धपुराण, शिवपुराण प्रादि पौराणिक ग्रंथों से भी होती है। इनमें जैनधर्म की उत्पत्ति के विषय में अनेक उपाख्यान उपलब्ध हैं। यथार्थ में प्रार्हत् धर्म जिस परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है वही वेदों, उपनिषदों, महाभारत और पुराण साहित्य में कुछ परिवर्तन के साथ स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। निश्चय ही अर्हत् तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय तक जैन धर्म के लिये पाहत् शब्द ही प्रचलित था। बौद्ध पाली ग्रंथों में तथा अशोक के शिलालेखों में निग्गंठ (निर्ग्रन्थ) का प्रयोग मिलता है । निरगंठ' या निर्ग्रन्थ शब्द जैनों का पारिभाषिक शब्द है। जिसका अर्थ 1. देखें लेखक की अन्य कृति “निग्गंठ नायपुत्त श्रमण भगवान महावीर तथा मांसाहार परिहार" : पृष्ठ ५७ . से ६१। 2. धर्मानन्द कौशांबी कृत पार्श्वनाथा चा चातुर्यामधर्म (मराठी) : पृष्ठ २४ से २६ । 3... श्री मद्भागवत ५॥३॥२०, पद्मपुराण १३।३५०, विष्णुपुराण १७,१८, स्कन्द पुराण ३१,३७, ३८ प्र०,
शिव पुराण ५।४-५। 4, एन्शियेंट इंडिया ऐज डिस्क्राइब्ड बाई मेगस्थनीज एण्ड इर्रयन : पृष्ठ ६७-६८ ।
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