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________________ जैन धर्म की प्राचीनता और लोकमत ३ का है । क्योंकि जैनों के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर श्रहेत् महावीर का निर्वाण ईसा पूर्व ५२७ वर्ष में हुआ, पार्श्वनाथ का निर्वाण महावीर से २५० वर्ष पूर्व हुआ था । पार्श्वनाथ की श्रायु १०० वर्ष की थी । अतः पार्श्वनाथ का समय ईसा पूर्व ८७७ से ७७७ ठहरता है । जैनागमों (साहित्य) में पार्श्वनाथ के चरित्र में कमठ तापस के प्रसंग को लेकर उसके हिंसामय प्रज्ञान तप का प्रतिकार तो उन्होंने किया है; किन्तु हिंसक यज्ञों का प्रचलन, प्रसार अथवा विरोध के प्रसंगों का सर्वथा अभाव पाया जाता है । इससे स्पष्ट है कि ईसा पूर्व ६ वीं शताब्दी तक भारत में हिंसक यज्ञों का प्रचलन नहीं था प्रथवा बहुत ही कम था । यदि होता तो उनके विरोध का अथवा प्रचलन का वर्णन अवश्य पाया जाता । श्रतः हिंसक यज्ञों का प्रचलन लगभग ईसा पूर्व 8 वीं शताब्दी के बाद होना निश्चित होता है । हमारे इस मत की पुष्टि बौद्ध विद्वान अध्यापक धर्मानन्द कौसांबी की पुस्तक 'हिन्दी संस्कृति और अहिंसा' में इस प्रकार होती है- "परीक्षित और जनमेजय (बुद्ध से ३०० वर्ष पूर्व) से पहले के समय में हिंसा प्रधान यज्ञ-यागादि का प्राधान्य न था । उन्होंने ( परीक्षित और जनमेजय) ने हिंसा प्रधान यज्ञ-यागादि धर्म को अधिक से अधिक वेग र उत्तेजन दिया। (यह समय पार्श्वनाथ का है) जिसका विरोध महावीर और बुद्ध ने किया ।" ( 3 ) ग्रर्हत् ( तीर्थंकर) महावीर तथा तथागत गौतम बुद्ध ने ईसा पूर्व छठी शताब्दी में वेद विहीत इन हिंसक यज्ञों का डटकर विरोध किया और उनके इस भगीरथ प्रयत्न के फलस्वरूप इस प्रथा की रोकथाम तथा मिटाने में बहुत सफलता प्राप्त की । इस बात की पुष्टि जैन श्रागमों और बौद्ध पिटकों से पूर्णरूप से हो जाती है । इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्तमान वेदों की रचना ई० पू० ६ वीं १० वीं शताब्दी से पहले की नहीं है । यदि ऋग्वेद की रचना इस काल से पहले की मानी जावे तो मानना होगा कि इन वेदों में हिंसक यज्ञ-यागादि के विधि-विधानों का प्रक्षेप ईसा पूर्व 8 वीं शताब्दी के बाद हुआ और तत्पश्चात् इन हिंसक यज्ञों ने प्रचार व प्रसार पाया । वेद पूर्व भारतीय संस्कृति वैदिक आर्यों के भारत श्राने से पहले यहाँ जो संस्कृति थी अब उसकी खोज होने लगी है और अनेक विद्वान इस बात को मानने लगे हैं कि यह श्रमण या प्रार्हत् संस्कृति होनी चाहिये, जो यज्ञपरायण वैदिक संस्कृति से भिन्न थी । डा० रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक "संस्कृति के चार प्रध्याय' में लिखा है कि - "यह मानना युक्तियुक्त है कि श्रमण संस्था भारत में आर्यों के आगमन से पूर्व विद्यमान थी और वेदधर्मानुयायी ब्राह्मण इस संस्था को हेय समझते थे । यह श्रमण ब्राह्मण संघर्ष बौद्धों से पूर्व भी था। क्योंकि पाणिनी ने जिसका समय ईसा से ७०० वर्ष पूर्व माना जाता है, श्रमण ब्राह्मण संघर्ष का उल्लेख करते हुए 'शाश्वतिक विरोध' के उदाहरण के रूप में किया है (पाणिनीय अष्टाध्यायी २।११७० के इसी सूत्र पर पातंजली के महाभाष्य ३ | ४१६) येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यावकाशः श्रमणः ब्राह्मणम् । वे आगे लिखते हैं कि 'पौराणिक धर्म निगम और श्रागम दोनों के आधार माना जाता है । निगम वैदिक प्रधान है और आगम प्राग्वैदिक काल से आती हुई वैदिकेतर धार्मिक परम्परा का वाचक है । जैनों के प्रमुख धार्मिक ग्रन्थों का श्राज भी आगम के नाम से ही उल्लेख किया जाता है और ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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