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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म द्वारा सिंचित शस्य श्यामला उपजाऊ धरती। भारत के अन्य प्रदेशों को दुष्काल के समय वहाँ की पीड़ित जनता को अन्न देकर दुष्काल से राहत देने का सौभाग्य प्रकृति ने इसी धरती को प्रदान किया है। यही कारण है कि यहाँ के लोग अन्य देशों के समान दुष्काल से पीड़ित होकर अपना घरबार छोड़ अन्यत्र भटकने नहीं जाते। इसी कारण से पंजाब को नदी-मात्रिक देश के नाम से किरात काव्य में युधिष्ठिर के दूत वनचर (भील) ने वर्णन किया है। राजस्थान, सौराष्ट्र, बागड़, कच्छ, गुजरात आदि प्रदेशों के समान पंजाब देवमात्रिक (वर्षा पर निर्भर खेती) देश नहीं है। इत्यादि सर्वश्रेष्ठ गुणसम्पन्न रमणीयता के कारण बाहर से आगन्तुक जातियों के बसने के लिये पंजाब सदा पाकर्षक रहा है। वैदिक आर्य लोग ऋग्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, यजुर्वेद इन चारों वेदों को अपना धर्मग्रन्थ मानते हैं। कुछ का कहना है कि वर्तमान वेदों की रचना ईसा पूर्व १५०० वर्ष पहले हुई और अनेक विद्वान् १०००,६०० वर्ष ईसा पूर्व मानते हैं । वैदिक दर्शन-साहित्य की रचना पंजाब, काश्मीर से प्रारम्भ होकर ब्रह्मवर्त, काशी, मिथिला, दक्षिण बंगाल आदि जनपदों में हुई है। सभी इतिहासकारों का यह मत है कि वर्तमान में उपलब्ध विश्व के साहित्य में ऋग्वेद सबसे प्राचीन है और इसकी रचना पंजाब में हुई है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई से सिर पर जटाजूट वाली अर्हत् ऋषभ की खड़े योग (कायोत्सर्ग) मुद्रा में नग्न; सिर पर पाँच सर्प फणवाली अर्हत् सुपार्श्वनाथ और शिव (रुद्र) की पाषाण मूर्तियाँ तो अवश्य मिली हैं। परन्तु वैदिक यजन सभ्यता की कोई सामग्री, यजन कुंड अथवा चिन्ह प्राप्त नहीं हुए। इस पुरानी सभ्यता के आधार से जो पुरातत्त्वज्ञों के मत से ईसा पूर्व तीन हजार वर्ष प्राचीन है निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस समय तक बैदिक व हिंसक यागयज्ञों का भारत में कोई प्रचलन नहीं था। पर अर्हतों तथा शिव की उपासना प्राग्वैदिक काल से इस देश में प्रचलित थी। ऋषभ और शिव दोनों प्रतीक ऋषभ के ही हैं। इसका स्पष्टीकरण हम आगे करेंगे। ___ हमारे विचार में वेदों की रचना पंजाब में प्रारम्भ हुई, इनका रचना काल ई० पूर्व ६०० वर्ष से पहले का नहीं है। कारण यह है इन यज्ञों में हिंसक यज्ञों के विधिविधान का विस्तृत प्रतिपादन है जिन यज्ञों का प्रसार ईसा पूर्व ६०० तक भारत में नहीं था। इस मत की पुष्टि नीचे लिखे संदर्भो से होती है। (1) बाईसवें अर्हत् 'जैन तीर्थंकर' अरिष्टनेमि कृष्ण के ताऊ समुद्र विजय के पुत्र थे। जैनागमों में उनके चरित्र को पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनके समय में भारत में विवाह-शादियों के प्रसंगों पर प्राण्यंग मांस भक्षण की प्रथा भी थी, जिससे उन्होंने इस प्रथा का घोर विरोध किया पौर इसी प्रसंग को लेकर संसार से विरक्त होकर आहती दीक्षा ग्रहण कर ली, और अनगार बन गये परन्तु उस काल में हिंसक यज्ञों का न तो कोई प्रचलन था और न ही इसका कोई उल्लेख मिलता है। इतिहासज्ञों ने कृष्ण का समय ई० पू० तीन हजार वर्ष माना है। अतः अरिष्टनेमि (जैनों के बाईसवें तीर्थंकर) और कृष्ण समकालीन थे। यद्यपि श्री अरिष्टनेमि का तथा श्री कृष्ण का समय जैनागम इस काल से बहुत पूर्व का मानते हैं। (2) जैनों के तेईसवें तीर्थंकर अर्हत् पार्श्वनाथ का समय ईसा पूर्व ६ वी ८ वीं शताब्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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