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________________ अध्याय १ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत ॐ ह्रीं श्री क्ली ए अर्ह सर्वदोष प्रणाशन्यै नम : वेदों की रचना के बहुत पहले से ही दो सांस्कृतिक धाराएँ चली आ रही हैं। पार्हत् और बार्हत् । प्राचीन साहित्य में इन दोनों के उल्लेख पाये जाते हैं। प्रार्हत् लोग अर्हत् के उपासक थे और बार्हत् वेद और ब्राह्मण को मानने वाले यज्ञों के उपासक थे। बृहती को वेद कहते हैं और उसके उपासक बार्हत् थे। १. बार्हत् (वैदिक) आर्य लोग सांसारिक भौतिक सुखों को प्राप्त कर वर्तमान जीवनको सुखी बनाने वाले प्रवृत्तिमूलक विचारों के तथा यज्ञों के उपासक थे। ये लोग मूल में भारत वासी नहीं थे। वैदिक साहित्य के अनुशीलन से तथा लघु एशियायी पुरातत्त्व एवं मोहन-जो-दड़ो, हरप्पा आदि सिन्धु-घाटी सभ्यता की खुदाई से प्राप्त सामग्री के आधार से यह बात सुनिश्चित हो चुकी है कि वैदिक प्रार्य गण लघु एशिया और मध्य एशिया के देशों से त्रेतायुग के प्रारम्भ में लग भग ३००० वर्ष ईसा पूर्व इलावत और उत्तर पश्चिम दर्राखैबर से होकर सर्वप्रथम पंजाब में प्राये और धीरे-धीरे सारे भारत में फैल गये । जो जातियाँ दक्षिबर के रास्ते भारत आई उन सब का प्रवेश पहले पंजाब की धरती पर हुआ। इसका कारण यह था कि पंजाब की धरती कई दृष्टियों से सारे भारत देश में श्रेष्ठ है। यहाँ जैसा उत्तम जलवायु अन्यत्र नहीं है। जल की प्रचुरता, स्थल की विशालता, वनस्पति की विपुलता, अनाज की बहुलता, फल द्रुपता और पुष्ट कदावर दुधारू पशुओं की बहुतायत के कारण इस देश को सोने की चिड़िया तथा दूध की नदियाँ बहने वाला कहा जाता था। अतिथ्य सत्कार की भावना वाली सरल मानव प्रकृति, बलवान् हृष्ट-पुष्ट शरीर, वीरता भरा ओजपूर्ण साहस यहाँ की प्रजा को प्रकृतिदत्त वरदान है । नदियों और उनसे निकलती हुई नहरों 1. भारतीय विचारधारा हमें आदिकाल (प्रागैतिहासिककाल) से ही दो रूपों में विभक्त हुई मिलती है। पहली विचारधारा परम्परामूलक ब्राह्मण या ब्रह्मवादी रही है, जिसका विकास वैदिक साहित्य में वृहत् स्वरूप में प्रकट हुआ है। दूसरी विचारधारा पुरुषार्थमूलक, प्रगतिशील श्रामण्य अथवा श्रमण प्रधान रही है, जिसमें आचरण को प्रमुखता दी गई है ये दोनों विचारधारायें एक दूसरे की परक भी रही हैं और विरोधी भी रही हैं । राष्ट्र की बौद्धिक एकता को बनाये रखने के लिये इन दोनों का समानतः महत्वपूर्ण स्थान है। (भारतीय दर्शन पृष्ठ ८६-वाचस्पति गैरोला-प्रयाग) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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