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लुका-ढूंढिया ( स्थानकवासी) म त
इस पंथ की वंशावली इस प्रकार है ।
१ - श्री भीखन जी, २ - श्री भारमल जी, ३ श्री रायचन्द्र जी, ४ – श्री जीतमलजी, ५ - श्री मेघराज जी, ६ - श्री मानेकलाल जी, ७ – डालचन्दजी, ८ - श्री कालूराम जी, ६-१ -श्री तुलसीगण जी ( विद्यमान ) ।
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आचार्य तुलसीगण से तेरापंथ का प्रचार पंजाब में भी होने लगा है । अतः इस समय पंजाब में भी तेरापंथ के अनुयायी बनते जा रहे हैं ।
४. पंजाब में यति-श्री पूज्य
पंजाब, सिंध आदि जनपदों में बड़गच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ तथा लौंकागच्छ के यतियों की गद्दियाँ थीं । १. जैन श्रमण की दीक्षा लेकर जो नवकल्प विहार करते हैं और सब प्रकार के परिग्रह के त्यागी हैं; पैदल चलकर सर्वत्र नगरों, ग्रामों से विचर कर जिनप्रवचन का प्रचार तथा स्वयं आचरण कर-कराकर स्व-पर का कल्याण करते हैं । गोचरी (मधुकरी) करके आहार- पानी ग्रहण करते हैं; पाँच महाव्रतों के धारक तथा रात्रि भोजन के सर्वथा त्यागी हैं; उनकी न तो कोई निजी संपत्ति होती है और न ही वे मठों मन्दिरों में रहते हैं; परिवार सगे संबन्धियों के साथ भी उनका कोई प्रतिबन्ध नहीं होता ब्रह्मचारी तथा सब प्रकार के परिग्रह के त्यागी होते हैं । उनके निमित्त बना हुआ कोई भी खाद्य, पेय, वस्त्र, उपकरण, आदि पदार्थ ग्रहण नहीं करते, उनके निमित्त बनाये हुए निवास-स्थानों में वे ठहरते भी कभी नहीं है । जहाँ कहीं ठहरना, अथवा निवास करना होता है वहीं गृहस्थों के अपने निमित्त बनाये हुए स्थानों में उनकी अनुमति से ठहरते हैं । ऐसे शुद्ध प्रचार वाले यति, श्रमण, साधु, भिक्षु, मुनि, अणगार श्रौर निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं । न इनका कोई परिवार होता है न संतान योग्य मुमुक्षुत्रों को पाँच महाव्रतों की दीक्षा देकर उन्हें अपना शिष्य बनाते हैं । इनमें जो महिलायें दीक्षा लेती हैं वे साध्वी श्रौर पुरुष दीक्षा लेते हैं वे साधु कहलाते हैं ।
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२ - जो व्यक्ति घरवार का त्याग कर जैन साधु का वेष तो धारण कर लेते हैं पर साधु के श्राचार का पालन नहीं कर पाते । किन्तु न तो उनका परिवार होता है न संतान । जैन उपाश्रयों और मंदिरों में रहते हैं; लंगोट के पक्के (ब्रह्मचारी) और ज़बान के सच्चे होते हैं । सवारी करते हैं, मठ और जमीन-जायदाद आदि भी रखते हैं । जैनधर्म शास्त्रों के विद्वान, ज्योतिष, वैद्यक (चिकित्सा), और मंत्र यंत्र-तंत्र के पारंगत होते हैं । ये भी अपने शिष्य बनाकर अपनी गुरु-शिष्य परम्परा को कायम रखते हैं । ये लोग उपाश्रय में अथवा उनके समीप जैनमंदिर बनवाते हैं, उनकी सार-संभाल, पूजा - सेवा की सब व्यवस्था करते हैं । रेल आदि की सवारी भी करते हैं श्रीर रुपया-पैसा भी रखते हैं । जैनधर्म की दृढ़ श्रद्धा वाले तथा उसके प्रचार-प्रसार में संलग्न रहते हैं । मंदिरों की प्रतिष्ठाएं कराना, धर्मोपदेश- शास्त्र वांचन आदि करना । पूजा प्रादि धर्मानुष्ठान आदि कार्यों में दक्ष होते हैं । इन्हें यति भट्टारक कहते हैं । गुजरात में गोरजी, राजस्थान में गुरांसा और पंजाब में पूजजी कहते हैं । ये जैनगृहस्थों से भेंट-दक्षिणा भी लेते हैं । इनके आचार्य भी होते हैं, जिन्हें श्री पूज्य कहते हैं । ये लोग चैत्यवासी के नाम से भी प्रसिद्ध है । इनकी दीक्षा तो जैनसाधु के समान ही होती है पर पांच महाव्रतों में से मात्र ब्रह्मचर्यव्रत का तो पूर्णरूप से पालन करते हैं,
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