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मध्य एशिया पोर पंजाब में जैनधर्म बाकी के चार व्रतों का पालन अनुव्रत के रूप से करते हैं। घर बार, परिवार मादि के भी त्यागी होते हैं।
ये लोग संस्कृत-प्राकृत-हिन्दी-गुजराती-उर्दू-फारसी आदि अनेक भाषामों तथा लिपियों के जानकार थे तथा चिकित्सा, काव्य, व्याकरण, छंद, अलंकार, जैनसाहित्य-चारित्र, अष्टांग निमित्त आदि उत्तम ग्रंथों की रचनाए भी करते थे। ये लोग दवादारू से चिकित्सा भी करते थे। असाध्य रोगों को भी दूर करने में दक्ष थे। झाड़ा-फूकी भी करते थे। साधना पाराधना से देवी-देवता भी इनके सहायक बन जाते थे। यंत्र-मंत्र-तंत्रों में भी सिद्धहस्त थे। अनेक शास्त्रों की प्रतिलिपियाँ भी करते थे। इनकी लिखाई इतनी सुन्दर थी कि मानों अक्षरों की मोती मालाएं पिरोई हों। बड़ेबड़े चमत्कारों से अमीर-उमराव, राजा-महाराजा, नवाब-बादशाह और सम्राट तक प्रभावित होकर सेवक बन जाते थे। जनता की निःस्वार्थ सेवा तथा राजारों-बादशाहों को संकटापन्न परिस्थितियों से धचाने पर इन्हें ज़मीन तथा जागीरें तक भेंट में मिलते थे। अनेक राजे-महाराजे तो इन्हें राजगुरु मान कर अपने गौरव को बढ़ाते थे। ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि जब राजा की सवारी निकलती थी तो इस यति राज की सवारी राजा के आगे चलती थी। जैन-जनेतर दर्शनों के विद्वान, चमत्कारों तथा मंत्रविद्या के विशारद तो होते ही थे किन्तु सर्व-साधारण प्रजा की निःस्वार्थ सेवामों के लिये भी दृढ़ संकल्प थे । जहाँ पर त्यागी मुनिराज नहीं पहुँच पाते थे वहाँ पर यति लोग ही जैनधर्म को अक्षुण्ण रूप से चिरस्थाई और जीवित रखने में कृत-संकल्प थे। भारत में प्राज भी अनेक स्थान ऐसे हैं कि जहाँ पर अनेक शताब्दियों से मुनिराजों का आवागमन नहीं हुआ, वहाँ आज तक जैन धर्म के उपासक इन्हीं की कृपा से विद्यमान हैं । इनके अपने-अपने जैन शास्त्रभंडार भी थे।
__ लगभग एक शताब्दी से अधिकतर यति लोग चरित्र भ्रष्ट होने लगे। कई लोग विवाह करके गृहस्थ बन गये और उपाश्रयों को अपने घरों के रूप में परिवर्तित कर लिया। शास्त्रभंडारों को कौड़ियों के दामों में बेच दिया अथवा नष्ट भ्रष्ट कर दिया। जायदादों और मंदिरों को समाप्त कर दिया अथवा गृहस्थी हो जाने पर उन्हें अपने जीवन निर्वाह का साधन बना लिया। प्रब इन लोगों ने अपनी जती जाति बना ली है और उसी में विवाह शादियां करने लगे हैं तथा जैनधर्म को छोड़कर अन्यधर्मी बनते जा रहे हैं। जो यति अपने धर्म में दृढ़ रहे उनकी प्रागे शिष्य परम्परा समाप्त हो गई । जो उनके पास चल-अचल सम्पत्ति बच पाई थी, उसके वहां-वहां के जैन श्वेतांबर अथवा स्थानकवासी संघ मालिक हैं। आजकल पंजाब में यति एकदम समाप्त हो चुके हैं, न तो कोई यति है और न कोई यति गद्दी ही है। अब इनका नाम शेषमात्र इतिहास के पृष्ठों पर ही अंकित रह गया है।
पहले पंजाब और सिंध में यतियों (पूजों) तथा इनके प्राचार्यों (श्रीपूज्यों) की गद्दियां कहांकहाँ पर थीं, उनका कतिपय विवरण यहाँ दिया जाता है।
(१) उत्तरार्ध लौकागच्छ के यति हम लिख पाये हैं कि लौंकाशाह गृहस्थ ने अहमदाबाद में जिनप्रतिमा पूजन के विरोध में वि० सं० १५३१ में एक नये पंथ की स्थापना की। इस पंथ के यति लौकागच्छीय कहलायें । गुजरात से लगभग वि० सं० १५६० में पंजाब में सबसे पहले यति सरवर के दो शिष्य रायमल्ल और भल्लो जी लाहौर में प्राये। इसलिये यह लाहौरी उत्तरार्ष लौंकागच्छ कहलाया। धीरे-धीरे
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