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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
प्रात्मानन्द जैन सभाओं के नाम से कायम की। यह महासभा श्री विजयानन्द सूरि (प्रसिद्ध नाम आत्माराम जी महाराज) की भावना को मूर्तरूप में लाने केलिये और उनकी स्मृति को कायम रखने के लिये स्थापित करके इसके नाम के साथ आपके ढूंढिया अवस्था और संवेगी अवस्था के नामों का संबंध जोड़ दिया गया। (प्रात्म+प्रानन्द प्रात्मानन्द)।1
३-ढूंढिया मत (स्थानकवासी मत) से निकला तेरापंथ मत स्थानकवासी मत के पूज्य श्री भूधर जी महाराज के तीन शिष्यों में से रुगनाथ जी महाराज मरुधर (राजस्थान) में विचर रहे थे। उस समय उन्हें भीखन जी नाम के एक शिष्य का लाभ हुआ। उसने रुगनाथ जी से वि० सं १८०८ में (ढूंढकमत की) दीक्षा ली । जन शास्त्रों का गहरा अभ्यास किया तब आपको लगा कि यह मानना ठीक नहीं है, अहिंसा-दान और अनुकम्पा में धर्म है । क्योंकि यह पुण्य के कर्म हैं, और पूण्य बन्ध का कारण होने से ग्रहण करने योग्य नहीं है। अतः नवतत्त्वों में पुण्य तत्त्व पाश्रव का कारण होने से मोक्ष प्राप्ति में बाधक है। इस लिए अवश्य त्यागने योग्य है। यह सोचकर इसने अपनी मान्यता की चर्चा अपने साथवाले साधुओं के साथ शुरूकर दी । उसके गुरु ने उसे बहुत समझाया कि जैन धर्म एकान्त मत नहीं है किन्तु अनेकान्त धर्म है। निर्जरा निश्चय धर्म है और पुण्य व्यवहार धर्म है । इन दोनों का अन्योन्य सम्बन्ध है। प्रतः पुण्य का एकांत निषेध करना जिनशासन के अनुकूल नहीं है । बहुत समझाने पर भी इसने अपना हठ नहीं छोड़ा। १२ साधुअों ने इसके मत का समर्थन किया। ये सब मिलकर १३ साधु ढूंढक मत से अलग होकर बगड़ी गांव (राजस्थान) में गये । वहाँ जाकर वि० सं० १८१८ में पुनः स्वयं दीक्षा लेकर इन्होंने इस पंथ की स्थापना की । इन १३ साधुओं तथा कुछ श्रावकों ने मिलकर भीकन जी को इस नये पंथ का संस्थापक होने के कारण अपने पंथ का प्राचार्य बनाया। तेरह साधूओं ने मिलकर इस पंथ की स्थापना की, इस लिए इसका नाम तेरहपंथ प्रसिद्ध हुआ। आगे चलकर इस पंथ के मानने वालों ने इसके नाम में परिवर्तन करके तेरापंथ नाम निश्चित किया। तेरापंथ नाम से इस पंथ के अनुयायियों का यह कहना है कि 'भीखन जी स्वामी ने भगवान महावीर के धर्म में पायी हुई विकृति को हटाकर पुनः उनके असली सिद्धान्तों की स्थापना करके कहा कि-हे प्रभो ! यह तेरा ही पंथ है ।' (तेरा+पंथ तेरापंथ)।' 1. श्री विजयानन्द सूरि कपूर क्षत्रीय जाति के थे। आपका जन्म वीरभूमि पंजाब के लहरा
गाँव में हुआ। वि० १६१० में साधु जीवनराम से ढूंढक मत की दीक्षा ग्रहण की पश्चात् वि० सं० १६३२ में संवेगी दीक्षा ग्रहण की। परिचय आगे लिखेंगे। 2. देखें स्थानकवासी मुनि मणिलाल कृत प्रभु महावीर वंशावली ।
3 प्रभुमहावीर के निग्रंथसंघ से वीरात् ६०६ (वि० सं० १३६) में दो वातों के मतभेद से (१) दिगम्बर मत निकला :- १-केवली पाहार नहीं करते भौर २- स्त्री को मुक्ति नहीं होती। (२) वि सं० १७०६ में महावीर शासन से ढूंढिया मत दो बातों के मतभेद से अलग हुआ। १
जिन प्रतिमा का उत्थापन तथा मुखपत्ति मुह पर बाँधना । (३) वि० सं० १८१८ में ढूंढकपंथ से दो बातों के मतभेद को लेकर तेरापंथ की उत्पत्ति
हुई । दान और दया (अनुकम्पा) धर्म नहीं हैं। अर्थात् महावीर शासन से दिगम्बर पंथ दो बातों से, दंढकमत दो बातों से और तेरापंथ बाले महावीर शासन से चार मतभेदों से अलग हुए।
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