________________
२६३
श्री भावदेव सूरि कर कुएं में लटका दिया । श्रीपूज्य भावदेव सूरि को बहुत सी विद्याएं सिद्ध थीं । क्षेत्रपाल देवता तो उनका सेवक ही था। याद करते ही क्षेत्रपाल गुरु के पास आपहुंचा और उनके बन्धन दूर करके कुएं से निकाला तथा चौकी पर बिठला कर बोला-गुरुदेव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो खेतसी को सारे परिवार के साथ बांधकर आपके पास ले आऊं और सबको इसी कुएं में आपके देखते ही देखते डुबोकर मार डालूं ? गुरुदेव ने क्षेत्रपाल को ऐसा करने के लिए मना किया और कहा कि हत्या करने से बहुत पाप होता है । जैनसन्त परम अहिंसक होते हैं । क्षेत्रपाल शांत हो गया। श्रीपूज्य जी को रात्रि के समय क्षेत्रपाल ने नगर से बाहर निकाल दिया। एक श्रावक को साथ में लेकर गुरु जी लाहौर की तरफ चल पड़े। लगभग ग्यारह-बारह कोस जाने के बाद गुरुजी ने श्रावक को कहा कि दिन चढ़ने पर खेतसी हम लोगों की तलाश करेगा; इसलिए तुम अपने घर वापस लौट जाओ। श्रावक अपने घर वापिस चला गया। इतने में प्रभात हो गई। तब गुरुजी एक वृक्ष के नीचे जा बैठे और नवकार मंत्र के जाप तथा जिनेश्वर प्रभु के ध्यान में तल्लीन हो गये ।
प्रातःकाल होते ही खेतसी भटनेर के कुएं में गुरुजी को देखने के लिए गया । उसने रस्सी को खाली लटकते हुए देखकर जब गुरु को वहां न पाया। तब गुरु को खोजने के लिए दो आदमियों को कुएं में उतारा। जब गुरु वहां भी न मिले तो खेतसी ने गुरु की तलाश के लिए चारों दिशाओं में अपने गुप्तचरों को भेजा ताकि वे खोजकर जहां पाये, वहां से गुरुजी को पकड़ लावें । अनुचरों ने दूर से देखा कि गुरु एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं। जब पास पहुंचे तो गुरु दिखाई नहीं दिये । हार-थककर बहुत परेशान हो गए और एक तरफ़ बैठ गये । वापिस लौटकर खेतसी से कहा कि बहुत खोज करने पर भी गुरु का पता नहीं लगा।
खेतसी ने अपने अनुचरों को आज्ञा दी कि भावदेव के सब शिष्यों को पकड़कर बन्दी खाने में डाल दो और उसकी पोषाल (उपाश्रय) को तोड़-फोड़ कर गिरा दो। अनुचरों ने वैसा ही किया ।
जंगल से जब खेतसी के अनुचर चले गये तब भावदेव सूरि सिरसा में पहुंचे और वहां से अपने एक शिष्य (संभवतः मालदेव) को साथ लेकर लाहौर पहुंचे। वहां के सकल श्रीसंघ ने श्रीपूज्य जी का जलूस से बड़े आडम्बर के साथ नगर में प्रवेश कराया । शंख, छैने, करताल, भेरी, मृदंग, उफ, शहनाई, तबलों, बाजों, भाटों, चारणों, भोजकों आदि के साथ गाते-बजाते हुए गुरु के चरण भेटें । गुरु के चरणों के तले पागड़ी, दरियां, कालीन, पूठिया बिछा दिये । प्रोसवाल तथा भाट-भोजक आदि सारे नगरवासी कहने लगे कि आज हम धन्य हो गये कि गुरुजी ने अपने चरण कमलों से हमारी नगरी को पवित्र किया है । गुरुजी उपाश्रय में पधारे और पाट पर बैठकर मधुर देशना दी। श्रावकों ने नारियल की प्रभावना की। कुछ दिन बीतने के बाद श्रीपूज्य जी ने श्रावकों से कहा कि हमने बादशाह को मिलना है। उससे कैसे मिल सकेंगे ?
श्रावकों ने कहा कि बादशाह के वजीर (मंत्री) को कुष्ट रोग है । बहुत इलाज कराने पर भी रोग मिटा नहीं। गुरुदेव ने वज़ीर का इलाज किया और वह चंगा (स्वस्थ-निरोग) हो गया। काया कंचन के समान हो गई।
वजीर गुरु के चरणों में आया और उऋण होने के लिए सेवा बतलाने के लिए गुरु से हाथ जोड़कर प्रार्थना की। धनराशि गुरु को भेंट करने लगा पर गुरु ने लेने से इनकार कर दिया और बादशाह से मिलने के लिए कहा । जब से वजीर को कुष्ट रोग हुआ था तबसे बादशाह से इसकी भेंट कभी नहीं हुई थी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org