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वैस्तुपाल-तेजपाल
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अर्थात् -- सबकाल में और सब स्थानों में वीरों की पूजा हुई है और ऐसा सदा होता रहेगा। महामानवों को हम सब प्यार करते हैं । क्या कोई भी सच्चा मनुष्य ऐसा अनुभव नहीं करता कि उससे ऊँचा जो भी कोई हो, उसका सम्मान करते हुए वह स्वयं को ऊंचा उठा रहा है ? इससे उदात्त अथवा अधिक सुखद भावना मानवहृदय में वास करती ही नहीं है..... 'वीर पूजा सदा है, सदा रही थी और सदाकाल मानवसमाज में रहने वाली है।।
_ ये दोनों भाई लड़ाई तथा राज्यकार्य में जैसे निपुण थे, वैसे ही जैनधर्म में भी दृढ़श्रद्धा रखनेवाले थे। वे अष्टमी और चतुर्दशी को तप करते थे। सामायिक, देवपूजा और प्रतिक्रमण भी नियमित रूप से करते थे। अपने धर्मबन्धुओं केलिये कम से कम एक करोड़ रुपया प्रतिवर्ष खर्च करने का इन्होंने निश्चय किया था । अपने साधर्मियों से इन्हें अगाध प्रेम था।
इनकी उदारता की कोई सीमा न थी वे मुक्त हस्त होकर दान करते ही जाते थे। होता यह था कि ज्यों-ज्यों वे धन का सदुपयोग करते थे, त्यों-त्यों धन और बढ़ता जाता था। इसलिये वे दोनों भाई विचार करने लगे कि इस धन का आखिर क्या किया जावे ?
तेजपाल की पत्नी अनुपमादेवी बुद्धि की भण्डार थी। उसने सलाह दी कि इस धन के द्वारा पहाड़ों के शिखरों पर सुन्दर जैनमंदिरों का निर्माण, जीर्णोद्धार कराकर शोभा बढ़ानो। यह सलाह सब को पसन्द आई । अतः शत्रुजय, गिरिनार, पाबू, कांगड़ा, काश्मीर आदि में अनेक भव्य जैनमंदिरों का निर्माण करवाया। इनमें से भी आबू के जैनमंदिर बनवाते समय तो उन्होंने यह कभी न सोचा कि इन पर कितना धन खर्च हो रहा है । उन्होंने वहाँ देश के अच्छे-अच्छे कारीगर इकट्ठे किये और नक्काशी करते समय निकलने वाले चूरे के बराबर कारीगरों को सोना तथा चाँदी पुरस्कार में दिया । विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में इस मंदिर के निर्माण में लगभग साढ़े अठारह करोड़ रुपया खर्च आया । इस मंदिर की जोड़ी आज भी संसार में कहीं न ीं है।
उनके राज्य में कोई भी ऐसा नगर या गांव नहीं था जहां उन्होंने जैन, जैनेतर मंदिरों तथा मुसलमानों की मस्जिदों, धर्मशालाओं आदि का निर्माण न कराया हो। मात्र इतना ही नहीं पर सारे भारत में सार्वजनिक जनता की भलाई केलिये इन्होंने अपनी न्यायोपाजित लक्ष्मी को उदार दिल से खर्च किया। उनके द्वारा किये गये सुकृत्यों का संक्षिप्त विवरण यहां दिया जाता है-- १३०४ देवभवन समान शिखरबद्ध जैनमंदिरों का नवनिर्माण कराकर प्रतिष्ठाएं
करवाई। १००००० (एक लाख) शिवलिंग स्थापित किये। १२५००० (सवा लाख) जिनप्रतिमाएं बनवाईं, उनमें पाषाण, धातु, स्वर्ण, चाँदी और रत्नों
की प्रतिमाएं भी शामिल हैं । उस समय इनके लिये अठारह करोड़ रुपया खर्च
हना।
१३०४ हिन्दू (वैष्णवादि) मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया।
७०० शिल्पकला के प्रादर्श नमूने के हाथीदांत के सिंहासन मंदिरों के लिये बनवाये । ६८४ धर्मसाधन करने के लिये धर्मशालाएं, पौषधशालाएं और उपाश्रय बनवाये । ३०२ हिन्दुओं के अनेक संप्रदायों के नये मंदिर बनवाकर उनके मानने वालों की सौंप
दिये।
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