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________________ २५० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधमें ५०५ समवसरण के योग्य सिलमा सितारा एवं जरी मोतियों के चंदुए- पोठिए बनवा कर जैनमंदिरों में दिये । २६००० प्राचीन जैनमंदिरों का जीर्णोद्धार ( नवनिर्माण तथा मुरम्मत कराया । तापसों के ठहरने और विश्राम करने के लिये सर्वानुकूलता वाले श्राश्रम बन - वाये । ७०० १६३६००००० रुपये श्री शत्रु जय तीर्थ के जीर्णोद्धार के लिये खर्च किये 1 १६६३००००० रुपये आबू पर्वत पर श्री नेमिनाथ का मंदिर बनवाने में तथा दोनों भाइयों की पत्नियों ललितादेवी और अनुपमादेवी द्वारा दो गोक्ष (माले) बनवाने में खर्च किये । ( मात्र दोनों नालों पर १८००००० अठारह लाख) रुपये खर्च आए जो देवरानी-जेठानी गोखलों के नाम प्रसिद्ध हैं । इस मंदिर की कारीगरी पर भारतीय एवं पौर्वात्ये पाश्चिमात्य कलाकार एवं विद्वान सब दंग रह जाते हैं । ३००००० सोनैयों के खुर्च से बनवाया हुआ एक तोरण शत्रुंजय तीर्थ पर अपर्ण किया । ३००००० सोनैयों के खर्च से एक तोरण बनवाकर गिरनार तीर्थ पर अर्पण किया । ३००००० २५०० सोनैयों के खर्च से वैसा ही एक तोरण बनवाकर प्राबू तीर्थ पर अर्पण किया । घर देरासर ( उपासकों के घरों में जैनमंदिर) बनवाये । २४ भगवान की रथयात्रा केलिये हाथीदांत के सुन्दर कारीगरी के रथ बनवाए । २५०० भगवान की रथयात्रा के लिए काष्ठ के उत्तम कारीगरी के रथ बनवाये | १६००००००० खर्च करके ज्ञानभण्डारों के लिए प्राचीन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ करवाई । शास्त्र भण्डारों की ( १ - भड़ोच, २-पाटण, ३ - खंभात में ) स्थापना की । हिन्दुनों के लिए सर्वसुविधाजनक सुन्दर धर्मशालानों का निर्माण करवाकर उन्हें सौंप दीं ६०० ३६ पानी के कुएं बनवाकर जनता के पानी के कष्ट को सदा के लिए दूर किया । अपने राज्य की सुरक्षा के लिए बड़े-बड़े मज़बूत किले (गढ़) बनवाए । ६४ मस्जिदें मुसलमानों को बनवा कर दीं । ३ ७०० ६४ पक्के कोटबद्ध सरोवर बनवा कर आम जनता को आराम पहुँचाया । ४६४ जनता के गमनागमन की सुविधा के लिए मार्ग पर सड़कों के अासपास बावड़ियां बनवाईं। ४८४ पृथक-पृथक स्थानों पर साधारण घाटवाले तालाब बनवाये | ४००० सर्व साधारण विश्राम के लिये धर्मशालाएं बनवायीं । ७०० पानी की प्याऊ बनवा कर उन्हें सदा चालू रखने की व्यवस्था कर दी । ५०० ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराते थे । ७०० १००० ' १५०० श्रामजनता लिये नित्य चालू रहने वाली दानशालाएं बनवायीं । तापस, सन्यासी एवं प्रागंतुक लोगों को प्रतिदिन भोजन कराया जाता था । जैन श्रमण श्रमणियाँ आपके रसोड़े से निरवद्य श्राहार- पानी ग्रहण करते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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