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मौर्य साम्राज्य और जैनधर्म
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वीरात् २२६-३० (ई० पू० २६८) में हुआ । इसका राज्यकाल २४ वर्ष रहा। अर्थात् चन्द्रगुप्त मौर्य के देहांत से श्रु तकेवली भद्रबाहु का स्वर्गवास लगभग ६० वर्ष और दिगम्बर मत के अनुसार ६८ वर्ष पहले हो गया था। इसलिए इन दोनों का परस्पर गुरुशिष्य सम्बन्ध, दोनों का श्रवणबेलगोला जाना और वहां दोनों का अनशन करके स्वर्गगमण करना ये सब बातें कल्पित मात्र सिद्ध होती हैं । जान पड़ता है कि दिगम्बरों ने अपनी प्राचीनता सिद्ध करने के लिए ही यह असफल प्रयत्न किया है।
दिगम्बर सा. जगदीशचन्द्र जैन भगवान महावीर नामक पुस्तक में लिखता है कि दिगम्बर संप्रदाय में चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में दक्षिण भारत में जैनधर्म का प्रवेश हो गया था ऐसी मान्यता है; पर इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
हमारे इस मत की पुष्टि दिगम्बरों के माने हुए विद्वान वैशाली विश्वविद्यालय के कुलपति स्व. डा० हीरालाल जी जैन M. A. D. Litt अमरावतीवाले भी करते हैं। वे लिखते हैं कि:
__ "दिगम्बर जैनों के ग्रन्थों के अनुसार भद्रबाहु का प्राचार्यपद वीर निर्वाण संवत् १३३ से १६२ तक २६ वर्ष रहा । प्रचलित बीर मिर्वाण संवत् के अनुसार ईसा पूर्व ३६४ से ३६५ तक पड़ता है। तथा इतिहासानुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्य ईसा पूर्व ३२१ से २९८ तक माना जाता है । इस प्रकार चन्द्रगुप्त मौर भद्रबाहु के (स्वर्गवास) काल में ६७ वर्षों का अन्तर
विक्रम की दूसरी शताब्दी (वि० सं० १३६) में जैनों के श्वेतांबर-दिगम्बर दो भेद हुए । इससे पहले इन्दभूति गौतम, सुधर्मास्वामी, जम्बुस्वामी को दोनों सम्प्रदाय वाले समान रूपसे मानते हैं। श्रुतकेवली भद्रबाहु भी दोनों सम्प्रदायों के लिए समान रूपसे पूज्य और मान्य हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य जैसा सम्राट जैनमुनि की दीक्षा ले यह तो वास्तव में बड़े गौरव की बात है। परन्तु जो घटना बनी ही न हो उसे केवल धर्म की महत्ता बढ़ाने के लिए और पंथ की प्राचीनता बताने के लिए ही मान लेना कदापि न्यायसंगत नहीं हो सकता।
जैनइतिहास में चन्द्रगुप्त मौर्य का जैनत्व, मंत्री चाणक्य की जैन मुनि की दीक्षा तथा तत्कालीन दीक्षामों आदि के अनेक उल्लेख मिलते हैं। यदि मौर्य राज्य संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने दीक्षा ली होती तो उसका उल्लेख भी अवश्य मिलता परन्तु पुराणों, बौद्धग्रन्थों तथा कथासरितसागर में भी इसका कोई वर्णन नहीं है अतः यह बात निःसंदेह है कि प्रशोकमौर्य के पितामह चन्द्रगुप्त और श्रुतकेवली भद्रबाहु का इस घटना के साथ बिल्कुल संबंध नहीं बैठता । श्वेतांवरजन साहित्य भी १२ वर्षीय दुष्काल के समय श्र तकेवली भद्रबाहु का नेपाल में जाकर महाप्राणायाम साधना करने का उल्लेख करता है।
हम लिख पाए हैं कि निमित्त-शास्त्रज्ञ भद्रबाहु द्वितीय विक्रम की पांचवीं शताब्दी में हुए हैं, उनका विहार उज्जयनी में भी हुमा है। उस समय गुप्तवंश का द्वितीय चन्द्रगुप्त जो विक्रमादित्य के नाम से भी प्रसिद्ध था । वह भी वि० सं० ४५६ में उज्जैनी का राजा था। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों के अनुसार इसी द्वितीय चन्द्रगुप्त और भद्र बाहु द्वितीय का समय समकालीन 1. माणकचन्द्र जैनथमाता बम्बई का जैनशिलालेख संग्रह पृ० ६३,६४,६६ .
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