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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
कोई स्पष्ट नहीं किया गया और यह कब हुआ, कहाँ का राजा था, किस जैनाचार्य का समकालीन था । इस का भी कोई निर्देश नहीं है।
(२) कथाकोष-हरिषेणकृत (महावीर निर्वाण से १५वीं शताब्दी में)
चन्द्रगुप्त उज्जैन का राजा भद्रबाहु से दीक्षा लेकर विशाखाचार्य के नाम से साधु होकर दक्षिण में पुलाटदेश को गया और स्वयं भद्रबाहु उज्जैनी के भद्रपद नामक स्थान पर गये और वहाँ कई दिनों का अनशन करके समाधि मरण किया। लेखक ने यहां उज्जैनी के चन्द्रगुप्त और विशाखाचार्य को एक बताया है और उसे दक्षिण जाने का लिखकर भद्रबाहु का उज्जैन में ही देहावसान होना लिखा है।
(३) भद्रबाहु चरित्र-रत्ननन्दीकृत-(हरिषेण से बाद)
उज्जैन के चंद्रगुप्त का दीक्षा लेकर भद्रबाहु के साथ पांच सौ मुनियों के साथ दक्षिण जाना और विशाखाचार्य का भद्रबाहु का पट्टधर होकर उनके साथ न जाने का उल्लेख है। लेखक ने यहां पर उज्जैन का राजा चन्द्रगुप्त मुनि और विशाखाचार्य दोनों भिन्न वतलाये हैं ।
(४) मुनिवंशाभ्युदय --दिगम्बरी चिदानन्दकृत (रत्ननन्दी से बाद)
श्रतकेवली भद्रबाहु श्रवणबेलगोला दक्षिण में गये पोर व्याघ्र ने उन पर प्राघात करके उनका शरीर विदारण कर दिया। लेखक ने इस में श्रुतकेवली भद्रबाहु की मृत्यु व्याघ्र के प्राघात से बतलाई है।
(५) पुण्याश्रव कथाकोष मुमुक्षु रामचन्द्र के (चिदानन्द के बाद) अशोक का पोता चन्द्रगुप्त मौर्य भद्रबाहु के साथ दीक्षा लेकर दक्षिण गया । (६) राजावली कथा
अशोक का पोता चन्द्रगुप्त अपने पुत्र सिंहसेन को राज्य देकर भद्र बाहु के साथ मुनि बन कर दक्षिण गया।
अपरंच दिगम्बर साहित्य तथा श्रवणबेलगोला के शिलालेख यह मानते हैं कि चन्द्रगुप्त पौर भद्रबाहु उज्जैन से श्रवणबेलगोला गये थे तथापि वे उसका सम्बन्ध मौर्य राज्य संस्थापक चन्द्रगुप्त तथा श्रुतकेवली भद्रबाहु प्रथम जिन्होंने मूल जैनागमों पर नियुक्तियाँ लिखी है उनके साथ जोड़ते हैं, और इसी बात का अनुकरण करते हुए पाश्चात्य विद्वान तथा शोधकर्ता प्राधुनिक भारतीय विद्वान भी इसी मत का समर्थन करते हैं । इसलिए इस पर कुछ विचार करना अनिवार्य हो जाता है।
अतः इतिहास से यह मान्यता निःसंदेह सर्वथा असत्य प्रतीत होती है। श्रु तकेवली भद्रबाहु का देवलोक पट्टावलियों में दी गई भाचार्य परम्परा की क्रमशः कालगणना के हिसाब से महावीर के १७० वर्ष बाद (ई० पू० ३५७), दिगम्बरमत के अनुसार महावीर के १६२ वर्ष बाद में हमा । चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण महावीर के २०५ वर्ष बाद (ई० पू० ३२२) और देहांत
1. मूल जैनागम जो विद्यमान है इन्हें दिगम्बरों ने एकान्त नग्नत्व की मान्यता के कारण मानना छोड़ दिया है
और श्वेतांबर जैन महावीर के काल से लेकर पाज तक इन्हें बराबर मानते हैं। उनपर उपयुक्त नियुक्तियां
भी श्वेतांबर बराबर मानते चले आ रहे हैं। 2 दिसम्परावायें से ती भद्रबाहु का उज्जैन के समीप स्वर्गवास बतलाया है ।
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