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________________ २७० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म होने से और यह राजा उज्जयनी का होने से संभव है कि इस घटना का संबंध इन दोनों के साथ जोड़ा गया हो। उपर्युक्त विवेचन से यह बात तो निर्विवाद है कि श्र तकेवली भद्रबाहु और मौर्य राज्य संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बंध का मंतव्य जैनसाहित्य और श्रवणबेलगोला के शिलालेखों से सिद्ध नहीं हो सकता। यदि इन शिलालेखों में चन्द्रगुप्त नाम के किसी राजा का किसी भद्रबाहु के साथ दक्षिण में जाना और चंद्रगिरि पर रहकर प्राणत्याग करना संभव हो तो वे किस समय हुए, इसकी खोज अवश्य होनी चाहिए । उपर्युक्त दिगम्बर मत के ग्रंथों में महाराजा चंद्रगुप्त और श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी के संबंध में कोई उल्लेख नहीं हैं और न ही दोनों का बारहवर्षीय दुष्काल के समय दक्षिण जाने का उल्लेख है । मौर्य साम्राज्य के इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार ने चंद्रगुप्त मौर्य का देहावसान मगध में लिखा है। मंत्री चाणक्य और जैनधर्म हम लिख पाये हैं कि महामंत्री चाणक्य ब्राह्मण था। इसके माता-पिता एवं वह स्वयं तथा इसका सारा परिवार जैनधर्मानुयायी था। यह तक्षशिला का निवासी था और तक्षशिला विश्वविद्यालय में ही इसने शिक्षा प्राप्त की थी। यह चंद्रगुप्त मौर्य का मंत्री था। चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बिंदुसार का भी यह मंत्री था। बाद में इसने जैनमुनि की दीक्षा ग्रहण की पोर संलेखनापूर्वक मृत्यु पाकर स्वर्ग को गया। चंद्रगुप्त मौर्य और चाणक्य इन दोनों राजनीतिक विभूतियों की सर्वोपरि विशेषता यह थी कि उन्होंने व्यक्तिगत धार्मिक विश्वासों को राजनीति एवं प्रशासन से सर्वथा अलग रखा । एक शस्त्र वीर क्षत्रीय था तो दूसरा शास्त्रवीर ब्राह्मण । एक विशाल साम्राज्य के सम्राट एवं प्रधानामात्य के रूप में उन दोनों का समस्त लोक व्यवहार पूर्णतया व्यवहारिक, नीतिपूर्ण. सर्वधर्म-सहिष्णुता एवं धर्मनिरपेक्ष था। साम्राज्य का उत्कर्ष, प्रतिष्ठा और प्रजा का हित तथा मंगल-जैसे बने वैसे सम्पादन करना ही उनका एक मात्र ध्येय था। २-बिन्दुसार मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र बिंदुसार था । युनानी लेखकों ने इसका एमिट्रोचेटिस के नाम से उल्लेख किया है । ईस्वी पूर्व २६८ में यह सिंहासनारूढ़ हुआ और लगभग २५ वर्ष तक अपने पिता के विशाल राज्य पर राज किया। यह भी अपने माता-पिता के समान ही जैनधर्मानुयायी था । बौद्ध ग्रंथ दिव्यावदान में इस प्रतापी मौर्य को क्षत्रीय मूर्धाभिषिक्त कहा है। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने इसे सोलह राजधानियों एवं उनके मंत्रियों का उच्छेद करनेवाला बतलाया है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में इसका निष्कंटक अधिपत्य था। ईसा पूर्व २७३ के लगभग इसका देहांत हुआ। इनके राज्यकाल में जिन्सों के भाव इस प्रकार थे मासिक वेतन २ पैसा से ५ पैसा । धान, गेहू, अन एक पैसे का ३० सेर । घी २ सेर १ पैसे का। तेल ७।। सेर एक पैसे का । दूध ३२ सेर एक पैसे का । गाय ३२ पैसे की । बछड़ा ४ पैसे का । बैल ६ पैसे का । भैंस ८ पैसे की। घोड़ा १५ पैसे का । एक माशा सोना १ पैसे का। दासी ३५ पैसे की। हाथी ४०० पैसे का। कांस्यपात्र तथा बैल का दाम समान । __ 1. देखें प्राचार्य हेमचन्द्र कृत परिशिष्ट पर्व । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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