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चन्द्रगुप्त मौर्य और जैनधर्म
(ऋषभदेव) तथा उनके बड़े पुत्र भरत चक्रवर्ति से सम्बन्धित अनुश्रुतियों का भी उल्लेख किया है । नन्द, उग्रसेन, चन्द्रगुप्त मौर्य, अमित्रघात, बिन्दुसार प्रादि के सम्बन्ध में भी युनानी लेखकों के वृतांत जैन अनुश्रुतियों से जितने समर्थित होते हैं उतने अन्य किसी भी अनुश्र ति से नहीं समर्थन पाते । महत्वपूर्ण घटनाओं की जो उन्होंने तिथियां प्रादि दी हैं वे भी विद्वानों के मतानुसार उन्हें जनों से ही प्राप्त हुई हैं । अर्थात् युनानी सिकन्दर के समय से पहले तथा बाद में भी गांधार, पंजाब, सिन्ध, तक्षशिला आदि जनपदों में सर्वत्र जैनधर्मानुयायी विद्यमान थे।
चन्द्रगुप्त मौर्य और जैनधर्म सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य किस धर्म का अनुयायी था इसके विषय में ब्राह्मण तथा बौद्ध साहित्य मौन हैं। जैन अनुश्रुति के अनुसार वह दृढ़ जनधर्मी था और शुद्ध क्षत्रीय था । बौद्ध साहित्य में भी उसे मोरिया नामक व्रात्य क्षत्रीय जाति का युवक सूचित किया है। व्रात्य शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में जनश्रमणों पाहतों के लिये किया गया है। जैनों को प्रार्हत् के नाम से वैदिककाल में संबोधित किया जाता था। युनानी लेखकों ने वात्यों का उल्लेख वेरेटाई के नाम से किया है । जिसका परिचय उन्होंने व्रतधारी तथा विशिष्ट ज्ञानवान के रूप में किया है । इस से भी स्पष्ट है कि 'चन्द्रगुप्त शुद्ध क्षत्रीय मौर्य जाति का था और वह जैनधर्मी था । ब्राह्मणों के इसे शूद्र, दासीपुत्र , वृषल आदि कहने का एक मात्र प्रयोजन उन का जनों से शाश्वती विरोध है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने परिशिष्ट पर्व में इसे शुद्ध क्षत्रीय तथा जैनधर्मानुयायी ही कहा है। इस सम्राट के अनेक जैनमंदिरों के निर्माण तथा जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं को स्थापन करने के उल्लेख मिलते हैं । उसके समय की तीर्थंकर की एक प्रतिमा लगभग तीन सौ वर्ष पहले गंगानी जैनतीर्थ में विराजमान थी ऐसा उल्लेख मिलता है। तथा सम्राट के त्रिरत्न, चैत्यवृक्ष, दीक्षावृक्ष प्रादि जैन सांस्कृतिक प्रतीकों से युक्त सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। यह सम्राट जैन था इसके प्रमाणों के लिये देखें-“मौर्य साम्राज्य के इतिहास की भूमिका (के० पी० जयसवाल), मिश्रबन्धु लिखित भारतवर्ष का इतिहास खण्ड २ पृष्ट १२१ तथा जनार्दन भट्ट द्वारा लिखित अशोक के धर्मलेख पृष्ठ १४ आदि।" विशेष जानने के इच्छुक जैनसत्यप्रकाश गुजराती मासिक पत्रिका क्रमांक ३२ पृष्ठ १३६ में "जेन राजामों शीर्षक लेख ।"
चंद्रगुप्त का अन्तिम समय चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन के अन्तिम समय के सम्बन्ध में प्राचीन लेखकों में बहुत मतभेद है। दिगम्बरों की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त ने जैनाचार्य भद्रबाहु से दिगम्बर जैनमुनि की दीक्षा ग्रहण की थी। एक बार पाटलीपुत्र में घोर अकाल पड़ा। काल की निवृत्ति का सब तरह से उद्योग किया गया। परन्तु जब सफलता नहीं मिली तो राज्य छोड़कर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य अपने गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु से दिगम्बर मुनि की दीक्षा लेकर उन के साथ श्रवणबेलगोला (मयसूर राज्य) में चला गया और अन्त में अनशन करके दोनों गुरु-शिष्य ने स्वर्ग प्राप्त किया। डा. फ्लीट तथा अन्य कतिपय विद्वानों ने इसकी प्रमाणिकता में सन्देह प्रकट किया है । श्रीयुत वी० ए० स्मिथ ने भी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Early History of India के द्वितीय संस्करण में इस विषय की
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