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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
दिगम्बर जैनों की मान्यता का खण्डन किया है । परन्तु तृतीय संस्करण में उन्होंने इस की सत्यता को स्वीकार कर लिया है।'
जिन प्राधारों से चन्द्रगुप्त का जैन मुनि होकर मयसूर जाने का स्वीकृत किया जाता है और अन्तिम समय में भद्रबाहु श्र तकेवली के साथ श्रवणबेलगोला में अनशन करके स्वर्गवास प्राप्त करने की कथा को सत्य समझा जाता है, हम पहले उस का उल्लेख करेंगे। पीछे उस की आलोचना करके किसी निश्चित परिणाम पर पहुंचने का यत्न करेंगे । इन आधारों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं (१) जैन साहित्य तथा (२) शिलालेख ।
(१) पहले जनसाहित्य को ले-ईसा की छठी शताब्दी में दिगम्बराचार्य यतिवृषभ ने अपनी तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि मुकुटधर राजाओं में सबसे अंतिम राजा चंद्रगुप्त ने जैन मुनि की दीक्षा ली, उसके बाद किसी मुकुटधारी ने जैन मुनि की दीक्षा नहीं ली ।।
(२) दिगम्बराचार्य हरिषेण (वि० सं० ९८८) ने अपने कथाकोष नामक ग्रंथ में लिखा है कि-भद्रबाहु को ज्ञात हो गया कि यहाँ एक द्वादशवर्षीय भीषण दुर्भिक्ष पड़ने वाला है। इस से उन्होंने समस्त संघ को बुलाकर सब हाल बतलाते हुए कहा कि अब तुम लोगों को दक्षिण देश में चले जाना चाहिये, मैं स्वयं यहीं ठहरूंगा। क्योंकि मेरी आयुष्य क्षीण हो चुकी है। तब चंद्रगुप्त ने विरक्त होकर भद्रबाहु स्वामी से जिनदीक्षा ले ली। फिर चंद्रगुप्त मुनि जो दसपूवियों में प्रथम थे, विशाखाचार्य के नाम से जनसंघ के नायक हुए । भद्रबाहु की आज्ञा से वे संघ को दक्षिण के पुन्नाट देश में ले गये। इस प्रकार रामल्य, स्थूलवृद्ध, भद्राचार्य अपने-अपने संघो सहित सिन्ध प्रादि देशों को भेज दिये गये और स्वयं भद्रबाहुस्वामी उज्जयनी के भाद्रपद नामक स्थान पर गये और वहीं उन्होंने कई दिनों का अनशन व्रत करके समाधिमरण प्राप्त किया ।
(३) इन के बाद होने वाले दिगम्बराचार्य रत्ननन्दी आदि भद्रबाहु चरित्र में लिखते हैं कि प्रवन्तिदेश (उज्जयन जनपद) में चन्द्र गुप्त राजा राज्य करता था उसकी राजधानी उज्जयनी थी - एक बार चन्द्र गुप्त ने सोते हुए रात को भावी अनिष्ट-फल के सूचक सोलह स्वप्न देखे । प्रातःकाल होते ही उसे भद्रबाहु स्वामी के आगमन का समाचार मिला। वे स्वामी उज्जयनी
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1. In the second edition of this book I rejected that tradition and dismissec
the tale as 'Imaginary History,' But on reconsideration of the whole evidence and objection urged against the credibility of the story, I am now disposed to believe that the tradition probably is true in its mair outline, and that Chandragupta realy abdicated and became a Jain ascetic
(V.A. Smith-Early History of India p. 154) 2. मउग्धरेसु चरिमो जिण-दिक्खं धरदि चंदगुत्तो य ।
ततो मउग्धरा दुप्पम्वज व गेण्हंति । (१४८१ तिलोयपण्णत्ति पृ० ३३८) 3. महमव तिष्ठामि क्षीणमायुर्भमाधुना ॥ (हरिषेणकृत कथाकोष) 4. प्राप्य भाद्रपदवेशं श्री मदुज्जयनी भवं । चकारानशनं धीरः सदिनानि बहुन्यलम् समाधिमरणं प्राप्य भद्रबाहुवि
थयो । (जैनशिलालेख संग्रह पृष्ठ ५८ दिगंबर डा० हीरालाल जैन डी. लिट् द्वारा संकलित)।
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