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________________ २५२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म अब इस चक्रेश्वरीदेवी के मंदिर को सारे जैन श्वेतांबर संघ का घोषित कर दिया गया है और इसकी व्यवस्था आदि के लिये सकल श्वेतांबर जैन श्रीसंघ पंजाब में से एक कार्यकारिणी कमेटी का गठन कर दिया गया है। इस में सब जातियों के श्नेतांबरजैन शामिल हैं। चक्रेश्वरी माता की यह प्रतिमा बड़ी चमत्कारी है । खंडेलवाल लोग अपने बच्चों की झंडे (पहली बार के मुंडन) यही उतरवाने के लिये लाते हैं। ८. सिरसा १. आज से दो-तीन सौ साल पहले सिरसा जैनश्वेतांबर यतियों का केन्द्र था। इस जगह खरतरगच्छ, बड़गच्छ, लौंकागच्छ के यतियों की गद्दियां थीं। कहा जाता है कि खरतरगच्छ के प्रसिद्ध यति सिद्धराजजी थे। उनके बाद यति ठाकुरसिंह जी, उनके बाद यति राजसिंह जी, यति रघूनाथजी, यति दयाचंदजी और यति किशोरचंदजी क्रमशः पट्टधर हुए। किशोरचन्द जी ज्योतिष के प्रसिद्ध विद्वान थे । इनके बाद इस गद्दी के शिष्यों ने अपने पूर्वज यतियों (पूजों) के साहित्य और सम्पत्ति को नष्ट और बरबाद कर दिया और विवाह शादियां करके भ्रष्ट होकर गृहस्थी बन गये। ज्ञात हुआ है कि यहां का जैनशास्त्र भंडार राजस्थान में चुरु और बीकानेर में जा चुका है। इन की दादावाड़ी अब तक मौजूद है । इस दादावाड़ी के साथ एक बाग तथा बहुत बड़ी उपजाऊ भूमि है। कागज़ात माल में इसका स्वामित्व मंदिर श्री जिनदत्त सूरि के नाम से है । परन्तु खेद का विषय है कि यति किशोरचंद का शिष्य विवाह करके यतिधर्म से भ्रष्ट होकर गृहस्थी हो गया था। आजकल यह दादावाड़ी का मंदिर, बारा और सारी भूमि उसी की वंशज संतान के अधिकार में है। २. सिरसा में उत्तराध लौकागच्छ के यतियों का इतिहास उज्ज्वल है। इस गच्छ के यति भेरुदानजी दीर्घदृष्टि थे । उन के शिष्य यति ज्ञानचन्दजी बहुत चमत्कारी थे। भेरुदानजी ने अपनी अचल सम्पत्ति का धर्मार्थ ट्रस्ट बना दिया था और ईस्वी सन् १९५२ अक्तूबर १० को इस ट्रस्ट को रजिस्टर्ड करवा दिया था। इस ट्रस्टीनामा में यति भेरुदान जी ने अपनी गोसियांवाली न.मक गांव की छह सौ बीघा भूमि, अपना उपाश्रय और धर्मशाला वक्फ कर दिये थे। ये स्वयं भी इस ट्रस्ट के ट्रस्टी बने और अतिरिक्त पांच अन्य ट्रस्टी भी नियुक्त किये । दृस्टीनामा में लिखा है कि ट्रस्टियों का कर्तव्य है-इस वक्फ सम्पत्ति की प्राय से सिरसा के श्रीशांतिनाथ जी के मेरे जैन मंदिर का खर्चा चलाया जावे । तत्पश्चात् यति भैरुंदान जी का देहांत हो गया। यद्यपि ट्रस्ट रजिस्टर्ड है और ट्रस्टी भी विद्यमान हैं परन्तु खेद का विषय है कि कर्तव्य का पालन नहीं हो रहा । इस यति परम्परा का अन्त हो चुका है। इस गद्दी के यति मनसाऋषि (मनसाचन्द्र) जी का भी स्वर्गवास हो चुका है। श्री मनसाचन्द्रजी ने अपनी युवावस्था में ही इस गद्दी का संबन्ध छोड़ दिया था । आप ने अपने जीवन का अधिकभाग त्यागमय तथा प्रौढ़ चरित्र का पालन करते हुए पंजाब के अनेक नगरों में विचरण करके जैनधर्म की प्रभावना की थी। इस समय यति भेरुदानजी के दृस्टी श्वे० तेरापंथी संप्रदाय के हैं। यति जी के उपाश्रय को इन लोगों ने अपनी धर्मशाला के रूप में बदल लिया है, ऐसा सुना जाता है। तथा इस ट्रस्ट की सम्पति की सारी प्राय को श्री शांतिनाथ जी के मंदिर की सार-संभाल में खर्च नहीं कर रहे। २ यहाँ पर बड़गच्छ के यतियों का भी बहुत आना-जाना रहा । इस गच्छ के श्रीपूज्य भावदेव सूरि के शिष्य मालदेव ने हिन्दी तथा राजस्थानी भाषा में अनेक जैनग्रंथों की रचना की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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