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मुलतान व सूबा सरहद्दी
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जो बाद में कलकत्ता चले गये थे और वहीं उनका देहांत भी हुमा । एकदा दिगम्बर विद्वान टोडरमल ने यहाँ के किसी दिगम्बरी धावक की शंकाओं का भी अपने पत्र द्वारा समाधान किया था। संभवतः यह कोई राजस्थान से व्यापार धन्धे के लिये उस समय यहाँ पाया होगा।
१. इस नगर की चड़ीसराय में एक प्राचीन श्वेतांबर जैनमंदिर था। इसके बीच के मूल गंभारे में श्री पार्श्वनाथजी मूलनायक थे । यह मुलतान का मूल मंदिर था। इसकी बाईं तरफ के मूलगंभारे में लैय्या के मंदिर की श्री पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा विराजमान थी और बीच के मूलगंभारे की बाईं तरफ के मूलगंभारे में डेरागाजीखां नगर के मंदिर की प्रतिमाएं विराजमान थी। इसका जीर्णोद्धार विक्रम संवत् लगभग १६७० में होकर तपागच्छीय मुनि श्री लब्धिविजय (प्राचार्य श्री विजयलब्धि सूरि) जी ने प्रतिष्ठा कराई थी।
२. नगर के बाहर खरतरगच्छ की दादावाड़ी भी थी।
३. मुलतान में अनेक श्वेतांबर जैन मुनियों तथा यतियों के ग्रंथ रचनाओं तथा पांडुलिपियों की सूचि आगे देंगे।
पाकिस्तान बनने पर यहाँ के सब जैन परिवार भारत चले आये और दिल्ली, जयपुर, ब्यावर प्रादि अनेक नगरों में जाकर आबाद हो गये हैं।
५-पंजाब का सूबा सरहद्दी इस सबा में बन्न, कोहाट, लतम्बर, कालाबाग आदि नगरों का समावेश है।
ये नगर सिन्धु नदी (सिन्धु देश) के पहाड़ी क्षेत्र में हैं। इन में प्रोसवाल भाबड़े मूर्ति पूजक श्वेतांबर जैन परिवार प्राबाद थे । इन का व्यापार-व्यवसाय यहाँ के मुसलमान पठानों के साथ था । पठानों पर इन की बड़ी धाक थी। ये लोग इस सारे क्षेत्र में भाबड़ा शाह के नाम से मशहर थे । ये सब परिवार खरतरगच्छ के अनुयायी थे । इस क्षेत्र में ढढिये साधुओं का प्रावागमन न होने से प्राचीन काल से ही श्वेतांबर जैन धर्मानुयायी चले आ रहे थे। इन के गोत्र सूराणा, लूणिया, वेद, बागचर, नाहर, लोढ़ा, बाफणा आदि थे । पाकिस्तान बनने के बाद ये सब परिवार भारत में गाजियाबाद, कोटकपूरा, जयपुर, हाथरस प्रादि नगरों में प्राबाद हो गये हैं।
यह एक ऐसा प्रदेश था जहाँ शताब्दियों से साधु-मुनिराजों का आवागमन बन्द हो गया था। इन परिवारों को जैनधर्म में दृढ़ रखने का पूरा-पूरा श्रेय यति यों (पूजों)को ही है । उन्हीं की कृपा से ये लोग मांसाहारी अनार्य जैसे प्रदेश में रहते हुए भी एकदम चुस्त जैनश्रावक बने रहे। जिनका प्राचार (चरित्र) व्यवहार तथा विचार जैनागमानुकूल अद्यावधि दृढ़ बने रहे । खरतरगज्छ, लौंकागच्छ, तपागच्छ प्रादि यतियों का यहाँ आवागमन रहा । विक्रम की १९वीं, २०वीं शताब्दी में तो जंडियालागुरु (जिला अमृतसर) के लौकागच्छीय यति श्री त्रिलोकाऋषि, श्री राजऋषि अधिकतर इस क्षेत्र में प्राकर चतुर्मास करते रहे, जिससे इनके धर्मसंस्कार दृढ़ बने रहे।
लतम्बर, कालाबाग (बागा नगर) तथा बन्नू में भाबड़ों के अलग मुहल्ले थे। उन्हीं में उनका निवास तथा उनके उपाश्रय और मंदिर भी थे।
पुराने समय में इन नगरों तथा प्रदेश के विषय में जैनधर्म का इतिहास सर्वथा मौन
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