SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाहौर २३६ पद मिला। इसी प्रकार भानुचन्द्र को उपाध्याय पद दिया । इस अवसर पर अबुल फ़ज़ल ने ६०० रुपये और १०८ घोड़ े दान दिये । जब विजयसेन सूरि ने ब्राह्मण पंडितों को हराया तो अकबर ने उन्हें सवाई की पदवी दी। जिसका अर्थ यह होता है कि वर्तमान में सब विद्वानों से सवाये (१०) नदिरे जमां ( बढ़-चढ़ कर) हैं। मुनि नन्दिविजय और मुनि सिद्धि चन्द्र के अवधान देखकर अकबर ने उन्हें खुशफहम ( कुशाग्र बुद्धि) की पदवी दी । सब पदवियां सब को एक दिन नहीं दी गईं। पर भिन्नभिन्न अवसरों तथा समयों में दो गई थीं । (३) श्राचार्यपद - तपागच्छीय मुनि श्री वल्लभविजय जी को विक्रम संवत् १६८२ में पंजाब जैन श्रीसंघ ने प्राचार्य पदवी दी । नाम विजयवल्लभ सृरि हुआ । (४) ग्रंथ रचना - १ - अष्टलक्षी ग्रंथ की रचना खरतरगच्छीय मुनि श्री समयसुन्दर ने की थी । इस में 'राजा नो वदते सौख्यम्' के आठलाख अर्थ किये थे । इस पर रत्नावली टीका भी है । यह ग्रंथ विक्रम संवत् १६४६ से प्रारंभ होकर वि० सं० १६७६ (३० वर्षों) में समाप्त हुआ था । वि० सं० १६४६ तक जितना ग्रंथ लिखा गया था, उसे अकबर ने लाहौर में सुना था । २. उपाध्याय जयसोम ने लाहौर में वि० सं० १६५७ में मंत्री कर्मचन्द्र प्रबन्ध लिखा । ३. अकबर का पूर्वजन्म - प्रकबर पूर्वजन्म में ब्रह्मचारी मुकन्द नाम का ब्राह्मण था और प्रयाग रहता था । वि० सं० १५८१ में यह मन से ऐसे इरादे से जलमरा कि अगले जन्म में राजा हो । उस भावना ( नियाना) के अनुसार यह मुकुन्द इस जन्म में इसने इस जन्म में जातिस्मरण (पूर्वजन्म के ) ज्ञान से जान लिया था । कारण ही यह सूर्योपासना करता था और प्रतिदिन भानुचन्द्रोपाध्याय से सूर्यसहस्र नाम सुनता था । भानुचन्द्रोपाध्याय ने अकबर के अनुरोध से ही इस सूर्यसहस्र नाम स्तोत्र की रचना की थी । ४. वि० सं० १६५१ में कवि कृष्णदास ने लाहौर में दुर्जनसाल बावनी की रचना की । ५. वि० सं० १६६४ में बृहद्गच्छीय श्री शीलदेव सूरि ने सरसा में विनयधर चरित्र की रचना की। सम्राट अकबर हुआ । पूर्वजन्म के संस्कार के ६. सत्तरहवीं शताब्दी विक्रम में हो गये जैन कवि जटमल नाहर ने हिन्दी में लाहौर की ग़जल की रचना की । यह लाहौर में नहीं लिखी गई किन्तु लाहौर से संबन्ध के कारण यहाँ उल्लेख किया है । इनके अतिरिक्त लाहौर में समय-समय पर अनेक ग्रंथों की रचना होती रही, परन्तु विस्तार भय से इनका उल्लेख नहीं किया है । तथा अनेक ग्रंथों की पांडुलिपियां भी यहाँ लिखी गईं जिनका संक्षिप्त विवरण हम प्रागे देंगे । ४ – मुलतान पाकिस्तान में लाहौर से लगभग २०० मील की दूरी पर पश्चिम दिशा में मुलतान नामक 1. इस ग्रंथ का परिचय हम आगे देंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy