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________________ २३८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म १-सम्राट अकबर का जिनपूजा कराना-अकबर के बेटे सलीम (जहांगीर) के यहां मूल नक्षत्र में एक लड़की पैदा हुई । ज्योतिषियों ने बतलाया कि यह लड़की अपने माता-पिता के लिए कष्टप्रद होगी, इसके लिए कुछ उपाय करना चाहिए। तब अकबर ने अपने अध्यापक जैनश्वेतांबर तपागच्छीय उपाध्याय श्री भानुचन्द्र जी से सलाह की । श्री उपाध्याय जी ने कहा कि श्री जैन तीर्थंकर भगवन्तों की अष्टोत्तरशत (१०८) स्नात्रपूजा कराने से मूल नक्षत्र का प्रभाव जाता रहेगा। इस पर सम्राट ने हुक्म दिया कि जो उपाश्रय अभी बनकर तैयार हुअा है, उसमें फौरन जिनपूजा कराई जावे । पूजा का प्रबन्ध श्वेतांबर जैन तपागच्छीय श्रावक थानसिंह जो आगरे वाली तपस्विनी चम्पाबाई के ज्येष्ठ पुत्र थे उनके सुपूर्द हुप्रा । उपाश्रय के समीप एक विशाल पडाल बनवाया गया। इस पूजा में कर्मचन्द वच्छावत को भी बुलाया गया था । पूजा बड़े समारोह के साथ हुई । स्वयं अकबर अपने सामन्तों और सलीम को साथ लेकर शाही बाजे गाजे के साथ पूजा मण्डप में पाया । बड़ी धूम-धाम से पूजा कराई, उसमें जनता की अपार भीड़ भी थी। पूजा की समाप्ति पर थानसिंह और कर्मचन्द ने अकबर को हाथी-घोड़े भेंट किये । सलीम को एक बहुमूल्य हार दिया। स्नात्रपूजा का जल अकबर और सलीम ने बड़ी श्रद्धा और भक्ति से अपनी प्राखो पर लगाया। खरतरगच्छीय लेखकों ने इस घटना का सम्बन्ध श्री जिनचन्द्र सूरि के साथ जोड़ दिया है, जोकि इतिहास की शोध से असत्य ठहरता है। इस का कुछ विवेचन यहाँ किया जाता है। अकबरनामा को देखने से ज्ञात होता है कि जहाँगीर की जिस पुत्री के मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण लाहौर में यह अष्टोत्तरी स्नात्र पूजा हुई थी, उसका जन्म १५ दे सन् ३४ ईलाही (२७ दिसम्बर ईस्वी सन् १५८६ तदनुसार विक्रम संवत् १६४६ पौष वदि १४) को हुआ था। उस समय तक तो अकबर को श्री जिनचन्द्र सूरि का पता भी नहीं था। हम लिख आये हैं कि इन की अकबर से भेंट वि० सं० १६४६ में लाहौर में सर्व प्रथम हुई थी। दूसरी बात यह है कि युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि के जीवन चरित्र में इस कन्या का जो जन्म समय बतलाया है वह आश्विन वदि २ वि० सं० १६४७ बतलाया है। उस समय तक तो जिनचन्द्र सरि लाहौर पधारे ही नहीं थे । इस दिन से लगभग डेढ़ वर्ष बाद इन की लाहौर में अकबर से भेंट हुई। ज्योतिषशास्त्र के हिसाब से इस दिन तो प्राय: अश्विनी नक्षत्र अथवा उस से पिछला या अगला नक्षत्र होता है। अतः ज्योतिष शास्त्र के हिसाब से भी यह असत्य ठहरता है। (२) अकबर द्वारा जैन मुनियों को पदवियां प्रदान --जैनसाधनों के चरित्र, ज्ञान, पांडित्य तथा सर्वजन हिताय भावना से अकबर इतना प्रभावित हुआ था कि उसने उन्हें अनेक पदवियाँ प्रदान की-वि० सं० १६४० में श्री हीरविजय सूरि को जगद्गुरु और मुनि श्री शांतिचन्द्र को उपाध्याय पद दिया। वि० सं० १६४६ में श्री जिनचन्द्र सूरि को युगप्रधान और मुनि मानसिंह को प्राचार्य पद दिया। तब से मानसिंह का नाम जिनसिंह सूरि प्रसिद्ध हुअा। इस अवसर पर मंत्री कर्मचन्द ने बड़ा भारी महोत्सव किया। जयसोम को पाठक पद, समयसुन्दर को उपाध्याय 1. देखें भानुचन्द्र गणि चरित्र । 2. देखें अकबरनामा भाग ३ फारसी पृष्ठ ५७२ अंग्रेजी अनुवादित पृ० ८६५-६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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