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लाहौर
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की घोषणा होने पर मुसलमान प्राततायियों ने समूलनष्ट कर दिया। लाहौर से सात-आठ मील दक्षिण की तरफ एक गांव है जिसका नाम "भावड़ा" है । शायद यहां भावड़ों-प्रोसवालों की बस्ती होगी जिससे यह नाम पड़ा है । भाबड़ा ग्राम में मंत्री कर्मचन्द ओसवाल वच्छावत गोत्रीय ने प्राचार्य जिनकुशल सूरि के चरणबिम्ब स्थापित किये थे। इसके साथ एक बावड़ी और बहुत सी ज़मीन भी लगती थी । लगभग सवा सौ वर्ष हुए इस जमीन को भाबड़ा ग्राम के ज़मींदारों ने दबा लिया। तब वहाँ से उस चरणपादुका को हटा कर पासवाले गाँव 'गुरु मांगट' में स्थापित कर दिया गया। यह चरणपादुका पुरानी हो जाने पर शहर के मन्दिर में लाकर विराजमान कर दी गई थी। जहां पहले चरणपादुका थी वहाँ प्रतिमास जैनों का मेला लगता था । जिसमें श्वेताम्बर जैन तथा स्थानकवासी सभी सम्मिलित होते थे ।
इसके अतिरिक्त बहुत से ऐसे ग्रंथ मिलते हैं जो अकबर और उसके बाद के समय में लाहौर में रचे गये या लिपिबद्ध किये गये हैं ।
प्रसिद्ध श्रावक-अकबर के समय में लाहौर में दो मुख्य जैन श्रावक थे। १-दुर्जनसालसिंह और २-कर्मचन्द वच्छावत । १-दुर्जनसालसिंह प्रोसवाल (भाबड़ा) जदिया गोत्रीय श्वेताम्बर जैन धर्मानुयायी था । इनके पिता का नाम नानू तथा पितामह का नाम जग्गूशाह था । यह तपागच्छीय जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि का अनन्य भगत था। वि० सं० १६५१ में कृष्णदास ने लाहोर में दुर्जनसालसिंह बावनी लिखी। उसके अनुसार दुर्जनसालसिंह ने लाहौर में एक जैन श्वेताम्बर मन्दिर बनवाया था और संघ समेत श्री शौरीपुर तीर्थ की यात्रा करके वहाँ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था।
२.मंत्री कर्मचन्द वच्छावत-यह बीकानेर का रहने वाला था। प्रोसवाल वच्छावत गोत्रीय था । खरतरगच्छीय श्वेताम्बर जैनाचार्य श्री जिनचन्द्र सूरि का भगत था। इसी की प्रेरणा से ही प्रकबर ने श्री जिनचन्द्र सूरि को लाहौर में अपने दरबार में बुलाया। वे अपने मुनिमण्डल के साथ वि० सं० १६४६ फाल्गुन सुदि १२ ईद के दिन लाहौर पहुँचे। जगद्गुरु हीरविजय सूरि से १० वर्ष बाद । इनकी अकबर के साथ भेंट हुई । इनके साथ जयसोम, समयसुन्दर आदि अन्य साधु भी थे। । इस समय बीकानेर के राय कल्यानमल की तरफ से कर्मचन्द वच्छावत अकबर के दरबार में रहता था।
धर्म प्रभावना और महोत्सव-जैनधर्म के महोत्सवों का आधार हैं-जिनप्रतिमा और साधुमहाराज । १-जिनप्रतिमा से सम्बन्ध रखनेवाले महोत्सव मंदिरनिर्माण, मन्दिरप्रतिष्ठा, सामूहिक पूजा, तथा तीर्थयात्रा के अवसरों पर मनाये जाते हैं । २-साधु महाराजों से सम्बन्ध रखने वाले महोत्सव उनकी दीक्षा, प्राचार्य आदि पदवी प्रदान, प्रवेश- महोत्सव तथा स्वर्गवास
आदि के अवसरों पर मनाए जाते हैं । अाजकल जयन्ति, शताब्दी, ज्युबिली, वार्षिक सम्मेलन आदि मनाने का रिवाज चल पड़ा है।
जो महोत्सव और धर्म प्रभावना लाहौर ने अकबर के समय में देखे थे, शायद उसे फिर कभी नसीब न हुए हों। उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ करते हैं ।
1. देखें कर्मचन्द वच्छावत चरित्र।
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