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पंजाब के कतिपय नगरों का जैन इतिहास
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पंजाब के कतिपय नगरों का जैन इतिहास
१- सामाना
सामाना पंजाब के प्राचीन नगरों में एक है। पिछली छह-सात शताब्दियों से यहाँ मुसनमानों का काफी जोर रहा है । इन लोगों ने कई बार इस नगर को लूटा और बरबाद किया । औरंगज़ेब के काल में यहाँ २२ नवाब थे । उन्होंने जैन-जैनेतरों के कई मंदिर गिरवाये । ज़बरदस्ती तलवार के ज़ोर से भारत वासियों को मुसलमान बनाया । इन में से यहाँ के जैन प्रोस - बाल भाबड़ों के कुछ परिवारों को भी जोर जुलम से मुसलमान बनाया गया । इन में एक परिवार ओसवाल दूगड़ गोत्रीय भी था । किसी समय यहां ओसवाल श्वेतांबर जैनों (भावड़ों ) के पाँच सौ परिवार आबाद थे। श्री पूजों (जैन यतियों) के कई उपाश्रय थे । इन में तपागच्छ, खरतरगच्छ, बड़गच्छ, श्रौर अंचलगच्छ के उपाश्रय प्रधान थे । वर्तमान में यहाँ पर श्वेतांबर तथा ढूंढक (स्थानकवासी) दोनों धर्मानुयायी श्रीसवालों के एक सौ परिवार आबाद हैं । दूगड़ गद्दहिया, रांका तथा बंब गोत्र प्रधान हैं ।
किंवदन्ति के अनुसार यहाँ बीस श्वेतांबर जैन मन्दिर थे। नगर के दक्षिण की ओर एक दादावाड़ी भी है । जिसकी स्थापना विक्रम की १७वीं शताब्दी में हुई थी । श्वेतांबर तथा स्थानकवासी दोनों आज तक इसे मानते चले आ रहे हैं । इस समय यहाँ सामाना शहर में एक श्वेतांबर जैन मंदिर है जो विक्रम संवत् १९६१ में स्थापित हुआ था और उपर्युक्त एक दादावाड़ी है। श्री पूज ( यति) जी के एक पुराने मंदिर की श्री ऋषभदेव को एक प्रतिमा भी इस मंदिर में लाकर विराजमान की गई हुई है। दूसरा जैनमंदिर मंडी में है, मूलनायक कुंथुनाथ हैं ।
यहाँ गढ़ी वालों का एक शिवमंदिर है। यह पहले श्वेतांबर जैनमंदिर था । इसका प्राचीन नाम सरदखाना अथवा शरतखाना था । पश्चात् इसे शिवमंदिर में बदल दिया गया । श्राज से २५ वर्ष पहले कई जैनमूर्तियां और पुराने जैनमंदिरों के अवशेष (खंडहर ) यहाँ मिले थे । एक ३ || फुट पद्मासनासीन ऊंची जिनमूर्ति भी इस शिवमंदिर के तहखाने ( भूमिगृह ) में रखी हुई थी । यहाँ पहले जैनी पूजा करने जाया करते थे । लेकिन इस मंदिर के अधिकारियों ने इस प्रतिमा को कहीं स्थानांतरण कर (छिपा ) दिया है । कहते हैं कि तहखाने में रखी है । जब स्थानकवासी संप्रदाय का पंजाब में ज़ोर बढ़ गया था तब यहां के जैनों ने जिनमूर्ति मंदिर को मानना छोड़ दिया था। इधर श्रीरंगज़ेब का प्रलयंकारी ध्वंसकारी अभियोग चालू था तब मूर्तियों को छिपाने, दबाने, तथा कुनों नदियों में फेंकने एवं तोड़ने फोड़ने के प्रयोग चालू हो गये थे। मालूम होता है कि उस समय जिसके हाथ जो जैनमूर्ति आई उसे अपने वहां रखकर जैनमंदिरों को अपने-अपने मंदिरों के रूप में अथवा मस्जिदों के रूप में परिवर्तित कर दिया गया ।
मुग़ल सम्राट अकबर महान के हुकुमनामे से ज्ञात होता है कि वि० सं० १६४३ में रोहिणी तप के उद्यापन के अवसर पर बड़गच्छीय श्री शीलदेव सूरि ने अपने गुरु श्री भावदेश सूरि के प्रदेश से इनके भगत मुसलमान बादशाह 1 द्वारा निर्माण किये गये जैन श्वेतांबर मन्दिर का जीर्णोद्वार करवा कर उस जैनमंदिर में जिनप्रतिमानों की प्रतिष्ठा कराई थी और उस मंदिर के मूलनायक १४वें तीर्थ कर श्री अनन्तनाथ प्रभु की वन्दना स्तवना की थी। कविता में इस प्रकार किया गया है ।
जिसका वर्णन एक
1. देखें इसी ग्रंथ में भावदेव सूरि के वर्णन में
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