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________________ २२६ १. ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष का मेला । २. कार्तिकी पूर्णिमा का मेला । मध्य एशिया और पंजाब में जौनधर्म विशेष ज्ञातव्य (१) बौद्ध ग्रंथों में जैनों के १८वें तीर्थंकर श्री प्ररनाथ को तीर्थंकर रूप में माना है (अंगुत्तरनिकाय भाग ३ पृष्ठ २५६-५७) । अरक और अरनेमि के नाम से भी अरनाथ का उल्लेख है । लिखा है कि इनके समय में मनुष्यों की आयु ६०००० वर्ष की होती थी । ५०० वर्ष की कुमारिका पति के योग्य मानी जाती थी । जैनों ने अर की आयु ८४००० वर्ष तथा उनके बाद होने वाली मल्ली तीर्थ कर की आयु ५५००० वर्ष की मानी है तथा दोनों के मध्यकाल की ६०००० वर्ष की आयु के लिये दोनों का एक मत है । (२) दूसरे तीर्थ कर अजितनाथ की प्रतिष्ठा बौद्धों, महाभारत तथा जैनों में समान रूप से पायी जाती है । (३) पाँचवें सुमति, सातवें सुपार्श्व प्राठवँ चन्द्र इन तीनों जैन तीर्थं करों की प्रतिष्ठा हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार साम्य रखती है। विशेष बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि ये तीनों असुर हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार जैनधर्म असुरों का धर्म है (सोरेन्सन कृत महाभारत विशेषनाम कोष ) । (४) ग्यारहवे श्रेयंस, चौदहवें अनन्त, पन्द्रहवें धर्म, सोलहवें शांति, तीसरे संभव इन पांचों तीर्थंकरों के नाम विष्णु के माने हैं (शिव विष्णु सहस्रनाम ) 1 (५) शिव के नामों में अनन्त, धर्म, अजित, प्रथम तीर्थंकर ऋषभ के नाम भी प्राते हैं । (६) बीसवें तीर्थ कर मुनिसुव्रत के नाम में यदि मुनि को सुव्रत का विशेषण माना जाय तो महाभारत में विष्णु और शिव का एक नाम सुव्रत भी है और इनका सम्बन्ध असुरों से जोड़ा है । इससे यह बात तो स्पष्ट है कि ये सब वेद विरोधी थे । इनका वेद विरोधी होना जैन परम्परा से इनका दृढ़ सम्बन्ध होना सिद्ध करता है । इस प्रकार (१) ऋषभ, (२) प्रजित, ( ३ ) संभव, (५) सुमति, (७) सुपार्श्व ( ८ ) चन्द्र, (११) श्रेयांस, (१४) अनन्त, (१५) धर्म, (१६) शांति, (१८) र ( २० ) सुव्रत, (२१) श्ररिष्टनेमि आदि जैन तीर्थ करों के नाम वैदिक, पौराणिक तथा बौद्धग्रंथों में भी पाये जाते हैं और ये सब असुर थे ऐसा कहा गया है । असुर वेद-पुराण विरोधी माने जाते थे तथा ये सब तीर्थ कर बौद्धधर्म के प्रादुर्भाव से बहुत पहले हो चुके हैं अतः यह प्रमाणित होता है कि जैनों के चौबीस तीर्थ करो की मान्यता काल्पनिक नहीं है परन्तु वास्तविक है । मात्र इतना ही नहीं किन्तु वैदिक नार्यों के भारत में आने से पहले ही वे सब हो चुके थे । इससे यह भी सिद्ध होता है कि जैनधर्म विश्व में अन्य सब धर्मों से प्राचीनतम है तथा भारत की अपनी सभ्यता है । पंजाब में भी ऋषभदेव से लेकर प्राज तक इस जैनधर्म का प्रचार व प्रसार रहा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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