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________________ हस्तिनापुर में जैनधर्म २११ (६) श्री शांतिनाथ प्रभु के मोक्षगमन के प्राधे पल्योपम के बाद छठे चक्रवर्ती जो बाद १७ वे तीर्थ कर श्री कुंथुनाथ हुए । इनके भी च्यवन आदि चारों कल्याणक, सामान्य राज्य पद, चक्रवर्ती पद, राजधानी, तप, प्रथम समवसरण, प्रथम देशना, द्वादशांगश्रुत, चतुर्विधसंघ तीर्थ की स्थापना, गणधरों-गणों आदि की स्थापना तथा तीर्थकर पद प्राप्ति श्री शांतिनाथ के समान सब इसी हस्तिनापुर में हुए । सारे पंजाब में भी आपके अनेक समवसरण हुए जिनमें देशना (धर्मोपदेश) देकर पंजाब जनपद में भी सर्वत्रिक जैनधर्म का प्रसार किया। आपकी माता पदरानी श्री तथा पिता सूर नामक राजा थे। कुंथुनाथ की आयु ६५००० वर्ष की थी। शांतिनाथ के समान ही इन्होंने अपनी आयु के चार विभागों में-यानी २३७५० वर्ष राजकुमार अवस्था, २३७५० वर्ष मांडलिक राजा तथा २३७५० वर्ष चक्रवर्ती की पदवी भोग कर कुल ७१२५० वर्ष गृहस्थावस्था के सुख को भोग कर श्री शांतिनाथ भगवान के समान वैभवपूर्ण छहखण्ड राज्य और सर्वपरिग्रह का त्याग करके एक हजार राजाओं के साथ श्रमण दीक्षा ग्रहण की। छद्मस्थावस्था में १६ वर्ष कठोर तप करके केवलदर्शन-केवलज्ञान की प्राप्ति कर वीतराग-सर्वज्ञ बने । तथा २३७३४ वर्षों तक सारे भरतक्षेत्र में जैनधर्म का प्रसार किया। अन्त में सम्मेतशिखर पर मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार प्रापने ६५००० वर्ष की आयु पूर्ण की। आपके द्वारा प्रतिबोधित ३५ गणधर, ३५ गण, ६०००० श्रमण ६०६०० श्रमणियाँ, ६७० चौदहपूर्वी, २५०० अवधिज्ञानी, ३३४० मनःपर्यव ज्ञानी, ३२०० सामान्य केवली, ५००० वैक्रियलब्धिवाले, २००० वादलब्धिवाले; इस प्रकार आपके स्वहस्त दीक्षित साधु-साध्वियों की संख्या थी और लाखों की संख्या श्रावक-श्राविकाओं की थी। आपके स्वहस्त दीक्षित साधु-साध्वियों के शिष्य-प्रशिष्यों की संख्या भी लाखों में थी। (७) श्री कुंथुनाथ के निर्वाण के बाद लगभग १/४ पल्योपम के बाद सातवें चक्रवर्ती और अठारहवे तीर्थ कर श्री प्ररनाथ हुए । इनकी प्रायु ८४००० वर्ष की थी। च्यवन से लेकर केवलज्ञान की प्राप्ति और संघस्थापना, धर्मप्रसार आदि सब घटनाएं श्री शांतिनाथ और श्री कॅथनाथ के समान हस्तिनापुर में ही हुई। अन्तर मात्र इतना है कि प्राप दीक्षा लने के बाद तीन वर्ष तक छद्मस्थ रहे और तप करके पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त किया । २१००० वर्ष राजकुमार, २१००० वर्ष सामान्य मांडलिक राजा, २१००० वर्ष चक्रवर्ती पदवी भोगकर ६३००० वर्ष गहस्थावस्था में रहे पश्चात् दीक्षा लेकर ३ वर्ष छद्मस्थ तथा २०६६७ वर्ष तक तीर्थ कर अवस्था से सर्वत्र जैन धर्म का प्रसार करके कुल ८४००० वर्ष प्रायु पूरी करके सम्मेतशिखर पर मोक्ष प्राप्त किया। आपके पिता का नाम सुदर्शन तथा माता का नाम देवी था। आपके स्वहस्त दीक्षित जनसंध में ३३ गणधर, ३३ गण, ५०००० श्रमण, ६०००० श्रमणियाँ, ६१० चौदहपूर्वधर, २६०० अवधिज्ञानी, २५५१ मन:पर्यवज्ञानी, २८०० सामान्यकेवली, ७३०० वैक्रियलब्धिवाले, १६०० वादलब्धिवाले कुल संख्या १२७४६१ श्रमण-श्रमणियाँ, ३३ गणधर, ३३ गण तथा लाखों की संख्या में श्रावक-श्राविकाएँ थीं।। (८) श्री अरनाथ के निर्वाण के बाद आठवां चक्रवर्ती सभूम नाम का हुआ इसकी माता का नाम तारा और पिता का नाम कृतवीर्य था। चक्रवर्ती अवस्था में इसने जैनधर्म का खूब प्रचार किया, पर अन्त में अति लोभी होने के कारण मरकर नरक में गया । 1, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र १६, १७, १८वें तीर्थंकरों के चरित्न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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