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________________ २१२ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म (e) उन्नीसवें तीर्थ कर श्री मल्लिनाथ प्रभु केवलज्ञान के बाद विचरते हुए हस्तिनापुर पधारे और यहां पर उन्होंने समवसरण में धर्मदेशना दी और बहुत संख्या में लोगों ने जैनधर्म स्वीकार किया। यहां के राजा अदीनशत्रु ने भी आपसे श्रमण दीक्षा ग्रहण की। संभवतः प्राप पंजाब में भी अवश्य विचरे होंगे। (१०) बीसवें तीर्थ कर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भी हस्तिनापुर पधारे और समवसरण में देशना दी। अनेक भव्यजीवों ने जैनधर्म को स्वीकार किया । अनेकों ने श्रमण-श्रमणी की दीक्षाएँ ग्रहण की। जिनमें से कुछ का विवरण यहाँ देते हैं। १-गंगदत्त गृहपति ने सात करोड़ सोना मोहरों एवं सब प्रकार की ऋद्धि-समृद्धि प्रादि परिग्रह का त्याग करके अपने अनेक साथियों के साथ प्राप श्री के करकमलों से दीक्षा ग्रहण की। द्वादशांगों का अभ्यासकर सर्वत्र भ्रमण कर जैनधर्म का प्रचार किया । अन्त में एक मास की संलेखना करके मर कर देवलोक में गया । (२) कातिक सेठ की जन्मभूमि भी हस्तिनापुर थी । इसने १००८ श्रेष्ठिपुत्रों के साथ आपसे दीक्षा ग्रहण की। बारह वर्ष तक चरित्र पालन कर एक मास की संलेखना करके मरकर प्रथम देवलोक में इन्द्र हुआ। (३) मुनि सुव्रतस्वामी के हस्तिनापुर में अनेक समवसरण हुए जिनमें धर्मदेशना सुनकर अनेक भव्य जीवों ने जैनधर्म स्वीकार किया। संभवतः पंजाब में भी पधारे होंगे और वहाँ पर भी अनेक भव्यजीवों ने जैनधर्म स्वीकार किया होगा। आपके समय में ही राम, लक्ष्मण, रावण आदि हुए थे। (११) बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी के समय में ही हस्तिनापुर में राजा पद्मोत्तर तथा विष्णुकुमार ने श्री सुव्रताचार्य से दीक्षाएँ ग्रहण कर श्रमणधर्म स्वीकार किया। बाद में यहां का राजा नभुचि हुआ। एकदा सुव्रताचार्य का चतुर्मास अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर में हुप्रा । नमुचि ने द्वेषवश जैनसाधुनों को अपने राज्य से सात दिनों के अंदर निकल जाने का हुक्म दिया। श्रमणों ने राजा नमुचि के पास एक श्रमण को भेजकर चतुर्मास तक हस्तिनापुर में ही स्थिरता करने की प्राज्ञा मांगी। किन्तु नमुचि नहीं माना । तब मुनि विष्णुकुमार ने उससे तीन कदम स्थान मांगा। नमुचि ने कहा कि- 'यदि तुम लोग तीन कदम भूमि का उल्लंघन करोगे अथवा उसके परे रहोगे तो मार दिए जानोगे।' मुनि विष्णुकुमार ने उसकी शर्त को स्वीकार किया और वैक्रियलब्धि से अपने शरीर को बढ़ाकर एक लाख योजन का बनाया और एक पग लवण समुद्र के पूर्व में और दूसरा पग लवण समुद्र के पश्चिम में रखा तथा तीसरा पग नमुचि पर रखा जिससे मुनियों का उपसर्ग दूर हुा । अतः विष्णुकुमार मुनि का नाम त्रिविक्रम प्रख्यात हुआ। (१२) मुनि सुव्रतस्वामी के समय में ही नवाँ चक्रवर्ती महापद्म हस्तिनापुर में हुआ। इसकी माता का नाम ज्वाला तथा पिता का नाम पद्मोत्तर था । अन्त में राज्य और सर्वपरिग्रह को त्याग कर जैनश्रमण की दीक्षा ग्रहण की। तप करके केवलज्ञान प्राप्त किया और सामान्य केवली होकर सर्वत्रिक जैनधर्म का प्रचार और प्रसार किया। अन्त में सबकर्मों को क्षय करके निर्वाण प्राप्त किया और सर्वदुःखों से मुक्त हुआ। (१३) बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि (नेमिनाथ) अपने इस भव से सात भव पहले हस्तिनापुर में शंख नाम के राजा थे। शंख के पिता का नाम श्री शेष तथा माता का नाम श्रीमती 1. जिनप्रभसूरि कृत विविध तीर्थकल्प पृ० २७ (सिंघीग्रंथमाला) 2. विविध तीर्थकल्प। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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