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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म "कुरु-जन वय' -हत्थिना उरनरीसरो पढमं तओ महाचक्कवट्टिभोए मह-प्पभावो, जो बावतरि-पुरवर- सहस्स वर निगम जणवयवई बत्तीसा - रायवर सहस्साणुयाय-मग्गो 'छन्नवइ-गामकोडी सामी श्रासी जो भारहम्मि भयवं ।। " अर्थात् 'श्री शांतिनाथ जी पहले तो कुरुदेश हस्तिनापुर राजधानी में सामान्य ( मांडलिक ) राजा थे । पश्चात् छहखण्ड भरतक्षेत्र के बड़े चक्रवर्ती राजा हुए। उस समय महाप्रभावशाली श्री शान्तिनाथ स्वामी बहत्तर हज़ार ( ७२०००) नगरों निगमों तथा देशों के स्वामी थे । बत्तीस हज़ार (३२०००) मुकुटबद्ध राजा उनके श्राधीन थे एवं छियानवे करोड़ (१६०००००००) गावों के स्वामी बड़े प्रभावशाली भगवान इस भरतक्षेत्र में हुए । आपकी एक लाख वर्ष की आयु के अन्तिम चतुर्थ भाग पच्चीस हज़ार वर्ष बाकी रहने पर आपने राजपाट सब परिग्रह का त्याग कर एक हजार राजानों के साथ हस्तिनापुर में दीक्षा ग्रहण की । एक वर्ष कठोर तप करके घाती कर्मों को क्षय कर यहीं पर केवलज्ञान प्राप्त कर वीतरागसर्वज्ञ-सर्वदर्शी बने । यहीं पर सर्वप्रथम समवसरण में धर्मदेशना देकर चतुर्विधसंघ ( साधुसाध्वी, श्रावक-श्राविका संघ) को स्थापना की एवं ३६ गणधरों को स्थापित कर स्वहस्त दीक्षित मुनियों के ३६ गण कायम किये । द्वादशांग श्रुत तथा चतुविधसंघ रूप तीर्थ की स्थापना कर तीर्थंकर पद से विभूषित हुए । जम्बूद्वीप के भरतश्रेत्र में इस अवसर्पिणी काल में १६ वें तीर्थं कर हुए | पश्चात् एक वर्ष कम पच्चीस हजार (२४९६९) वर्ष तीर्थ कर अवस्था में सारे देश में भ्रमण कर जैनधर्म का प्रसार किया। पंजाब जनपद में भी आप के अनेक समवसरण धर्मदेशना के लिये हुए | अतः आपका च्यवन ( गर्भावतरण), जन्म, दीक्षा, तथा केवलज्ञान ये चार कल्याणक, चतुर्विधसंघ, गणधरों, गणों आदि की स्थापनाएं सब हस्तिनापुर में ही हुए हैं । आपके द्वारा प्रतिबोधित ६२००० श्रमण ६१६०० श्रमणियां, ८०० चौदह पूर्वधारी, ३००० अवधिज्ञानी, ४००० मनः पर्यवज्ञानी, ४३०० सामान्यकेवली, ६००० वैक्रियलब्धिधारी, ३६ गणधर, ३६ गण । कुल श्रमण श्रमणियों की संख्या १४४१०० तथा इन श्रमण श्रमणियों के शिष्यप्रशिष्य भी लाखों की संख्या में उस समय थे । लाखों की संख्या में श्रावक-श्राविकाएं भी थे । २५००० वर्ष में सर्वत्रिक जैनधर्म का प्रसार करके औौर लाखों को आत्मकल्याणकारी मार्ग का अनुसरण कराकर अन्त में बिहार प्रांत के सम्मेतशिखर पर्वत पर जाकर सर्वकर्मों को क्षयकर निर्वाण पंद पाये । २१० 1. श्री ऋषभदेव के एक पुत्र का नाम कुरु था। भारतवर्ष में इसी कुरु के नाम से कुरु राष्ट्र (जनपद) विख्यात हुमा । बौद्धों के माने हुए १६ जनपदों में कुरु देश को एक महाजनपद माना है । पाली साहित्य में इसका विस्तार ८००० योजन बतलाया है। बौद्धों ने योजन का माप ७॥ मील बतलाया है । ( लगभग १२ किलोमीटर) जैनागम प्रज्ञापणा सूत्र में जिन २५ ।। श्रार्यदेशों का निर्देश किया गया है, इन में कुरु को भी एक श्रादेश माना है। इस कुरुदेश के कुरु जनपद, कुरु जांगल देश, कुरुक्षेत्र, कुरुरट्ठ, कुरुराष्ट्र आदि नाम प्राचीन साहित्य में पाये जाते हैं । जैनागम प्रज्ञापणा सूत्र में कुरु जनपद की राजधानी गजपुर ( हस्तिनापुर ) बतलाया है । कुरु राजा के एक पुत्र हस्ति के नाम से इसका नाम हस्तिनापुर पड़ा। गजपुर, गयउर, गयपुर, गयनयर, गजनगर, गजाह्न, गजाह्वय, नागपुर तथा हस्तिनापुर एवं आसन्दीयत तथा आसन्दिवत, ब्रह्मस्थान आदि अनेक नामों से हस्तिनापुर का उल्लेख मिलता है । Jain Education International .. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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