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________________ १६८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म धर्मान्धता से अनेकों जैन श्रौर हिन्दू मंदिरों को ध्वंस किया । राजा अनंगपाल तृतीय के राज्य मंत्री नट्टल द्वारा बनाये हुए विशाल जैनमंदिर को भी तोड़कर उसे कुब्वतुल इसलाम (मुसलमानों की शक्ति) नामक मस्जिद में परिवर्तित किया । जनरल ए० कनिंघम को दिल्ली की इस मस्जिद की एक दीवार पर अंकित एक शिलालेख मिला था, जिसमें लिखा था कि इस मस्जिद की निर्माण सामग्री प्राप्त करने के लिये २७ मंदिरों को नष्ट किया गया है । उक्त प्रकार के कार्य सामान्यतः अधिकांश मुसलमान बादशाहों के शासनकाल में होते रहे | किन्तु इस वातावरण में भी जैनसाधुनों और श्रावकों ने अपने धर्म पर श्रारूढ रह कर तथा समुचित कर्तव्यों को निभाकर अपने साहस व धैर्य के अनूठे उदाहरण उपस्थित किये हैं । (६१) ईस्वी सन् १२७२ (वि० सं० १३२९) में जब कि दिल्ली में गुलामवंश के ग्यासुद्दीन बलबन का शासनकाल था उस समय श्वेतांबर जैनधर्मानुयायी प्राग्वाट ठक्कुर फेरू शाही खजानची (राज्य कोषाध्यक्ष ) थे, वे बहुत बड़े विद्वान भी थे । उन्होंने कई ग्रंथों की रचना भी की। वे रत्नपरीक्षक तथा टक्साल के कार्य में दक्ष थे । उन्होंने करनाल में वास्तुसार नामक ग्रंथ की रचना भी की थी। जिसमें जैनमंदिरों, जैनमूर्तियों के निर्माण तथा स्वरूप का सुन्दर वर्णन है एवं इनकी प्रतिष्ठा प्रादि संबन्धी विषयों पर सुन्दर प्रकाश डाला है । (६२) इसी के राज्यकाल में जैनश्वेतांबर धर्मानुयायी प्राग्वाट ( पोरवाल ) कुल के सुर श्रौर वीर नाम के दो वीरों को इस ने अपने राज्य मंत्री बनाये थे । (६३) ईस्वी सन् १३१६ (वि० सं० १३७३) में जन श्वेतांबर श्रावक देवराज ने दिल्ली से शत्रु जय तीर्थ का संघ निकाला था । (६४) तुगलक वंश के सर्वप्रथम शासक ग्यासुद्दीन के शासनकाल में वि० सं० १३५० में दिल्ली निवासी श्वेतांबर जैनधर्मानुयायी श्रीमाल ज्ञातीय सेठ हरू के पुत्र श्रावक रयपति ने तीर्थ यात्रा के लिये शाही फ़रमान प्राप्त किया और पांच मास की लम्बी यात्रा के बाद दिल्ली वापिस पहुंचा । (६५) मुबारिकशाह के शासनकाल में (वि० सं० १४७८-८० ) शाह हेमराज जैनमंत्री ने दिल्ली में एक जैनमंदिर बनवाया था। बाद में राज्य भी किया जो हेमू के नाम से प्रसिद्ध था । दिल्ली के राजसिंहासन पर वह इस काल का प्रथम जीन राजा था । (६६) प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने मुहम्मद तुग़लक के राज्यकाल में ही अपना विविध तीर्थकरूप नामक ग्रंथ दिल्ली में सम्पूर्ण किया । हस्तिनापुर आदि पंजाब के अनेक तीर्थों की यात्राएं भी कीं । हस्तिनापुर तीर्थ के स्तवन और कल्प की रचना भी की । (६७) चमत्कारी श्रीपूज्य भावदेव सूरि ने वि० सं० १६०४ में श्रीपूज्य पदवी पाई जिनकी भट्टनेर में गद्दी थी। बहुत प्रभावक और चमत्कारी हुए हैं सिंध और पंजाब में भी इन्होंने जैनधर्म की बहुत प्रभावना की। इन का विशेष परिचय हम श्रागे देंगे । (६८) जगद्गुरु हीरविजय सूरि वि० सं० १६३६ से मुगल सम्राट अकबर पर जैन धर्म का प्रभाव डालकर अनेक प्रकार के फ़रमान प्राप्त किये तथा इनके शिष्यों प्रशिष्यों ने भी अकबर की तीन पीढ़ियों तक इनके सानिध्य में रहकर इन पर अनेक उपकार किये जिसके परिणामस्वरूप जनधर्म की प्रभावना, जनतीर्थों का संरक्षण हुआ और इन बादशाहों को अपने प्रभाव में लाकर उन्हें मानवता सिखलाई । इस का विशेष विवरण हम आगे करेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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