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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म इस से उनके विशिष्ट प्रभाव और लब्धि सम्पन्नता का पता चल जाता है। चौकी पर बैठ कर व्याख्यान करते हुए शत्रुजय तीर्थ पर लगी हुई अग्नि को आपने उपशमित कर (बुझा) दिया था । बावन वीर और चौसठ योगिनियाँ पाप की हाज़री में रहते थे । इस चमत्कार के कारण बड़गच्छ में आज तक आपका कायोत्सर्ग किया जाता है । इस तरह नित्य-निरन्तर आप की शिष्य परम्परा ने आप की स्मृति बनाये रखी है । आप बड़गच्छ के दादा के नाम से प्रसिद्ध हैं । मुनिशेखर सूरि मुनि (मणि) रत्न सूरि के शिष्य थे और पट्टधर भी थे। संसारावस्था में आप श्री मणिरत्न सूरि के वंशज भी थे। मुनि शेखर सूरि का जन्म दूगड़ वंश (गोत्र) के आदि पुरुष श्री दूगड़ जी की दसवीं पीढ़ी में हुआ था । आप का जन्म उच्चनगर (पंजाब) में हुआ था। पाप का वंश परिचय इस प्रकार है ___ "श्री दूगड़ जी की आठवीं पीढ़ी में श्री जसदेवजी प्राघाट (राजस्थान) में हुए, इनके पुत्र श्री ईश्वरचन्द्र जी विक्रम की १३वीं शताब्दी में अपने परिवार को साथ में लेकर उच्चनगर में आकर बस गये । ईश्वरचन्द्र जी की पत्नी ईश्वर दे की कुक्षी से दो पुत्रों का जन्म हुआ। १ --थिरदेव और २-शेखर । शेखर ने प्राचार्य मुनि रत्न रि से उच्चनगर में दीक्षा ली। प्राचार्य पदवी प्राप्त करने पर आपका नाम मुनिशेखर सूरि हुआ। आप बाल ब्रह्मचारी थे। वि० सं० १३४५ में इनके भाई थिरदेव ने शत्रुजय आदि तीर्थों का संघ निकाला और संघवी का पद प्राप्त किया । मुनि (मणि) रत्न सूरि तथा इनके पट्टधर शिष्य मुनिशेखर सूरि भी अपने शिष्यों प्रशिष्यों सहित इस संघ के साथ थे। मुनि रत्न सूरि तपागच्छ संस्थापक प्राचार्य श्री जगच्चन्द्र सूरि के संसारावस्था के सगे भाई थे । मुनि अवस्था में मुनिरत्न सूरि गुरु और जगच्चन्द्र सूरि उनके शिष्य थे । ये दोनों श्री दूगड़ जी की सातवीं पीढ़ी में हुए हैं। मुनिशेखर सूरि श्री जगच्चन्द्र सूरि के संसारावस्था के प्रपौत्र थे । मुनिशेखर सूरि की प्रतिमा भट्टनेर में पूजी जाती थी। (४८) मुनिशेखर सूरि के पट्टधर श्री तिलक सूरि थे। श्रीपूज्य भावदेव सूरि भी इसी गच्छ में बड़े प्रभावशाली और चमत्कारी जैनाचार्य हुए हैं। इनके शिष्य यति कवि माल ने हिन्दी और राजस्थानी भाषानों में अनेक ग्रन्थों की रचनाए की हैं जो भाषा, कविता तथा प्रस्तुत विषयों की प्रौढ़ता के बोलते संदर्भ हैं । कवि माल का समय विक्रम की १७ वीं शताब्दी है। इन की गद्दी सिरसा जिला हिसार में भी थी। मुनिशेखर सूरि की कितनी पीढ़ी के बाद कौन से साधु गद्दीधर यति बने यह ज्ञात नहीं है। (४६) वि० सं १३४५ में प्राचार्य सिद्ध सूरि के आज्ञाकारी मुनि श्री जयकलश उपाध्याय ने सिंध में विहार करके जैनधर्म की प्रभावना के बहुत शुभ कार्य किये थे । (५०) वि० सं० १३७४ में देवराजपुर में राजेन्द्रचन्द्र का प्राचार्य पद हुआ और उन्होंने अनेक नर-नारियों को दीक्षाएं दीं। (५१) गणधरसार्द्ध शतक (वि० सं० १२६५) की बृहद्वृत्ति में उल्लेख प्राचार्य श्री जिनबल्लभ सूरि तथा इन के शिष्य प्राचार्य श्री जिनदत्त सूरि का अपने शिष्यों प्रशिष्यों साधुनों के साथ सिन्ध में प्रागमन हुआ और मरोट, उच्चनगर, मुलतान में चतुर्मास किये । नारनौल में पाये, भट्टनेर भी गये तथा सिंध देश में पांच पीरों को साधा। 1. देखें इस ग्रन्थ के लेखक द्वारा लिखित “सद्धर्म संरक्षक' नामक पुस्तक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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