SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सिंधु-सौवीर में जैनधर्म १६५ समन अथवा श्रमण जैन तपस्वियों को कहा जाता था। अर्थात् अहिंसा का पालन, मूर्तिमंदिर आदि पर श्रद्धा तथा तपस्या ये सब बातें इस बात के स्वतंत्र प्रमाण हैं कि उस समय सिंध में सर्वत्र जैन लोग ही सर्वाधिक संख्या में प्राबाद थे । (जिनविजय जी की विज्ञप्तित्रिवेणी की प्रस्तावना)। सामाजिक शिक्षा भाग ३ पृष्ठ २१ में लिखा है कि सिन्ध का राजा दाहिर जैन था, जिस ने मुसलमान आक्रमणकारियों को बुरी तरह से खुदेड़ डाला था, और वे भारत से वापिस अपने वतन को लौट गये थे । तत्पश्चात् भी सिंध में जैनधर्म का सार्वत्रिक प्रचार-प्रसार और प्रभाव रहा । यथा (४१) वि० सं० १२१८ में जिनचन्द्र सूरि ने उच्चनगर में कुछ नर-नारियों को दीक्षाएं दी थीं। (४२) वि० सं० १२२७ में मरुकोट में (वर्तमान में मरोट-पाकिस्तान में) जिनपति सूरि ने तीन प्रादमियों को दीक्षाएं दी थीं। विज्ञप्ति त्रिवेणी में मरुकोट को महातीर्थ के नाम से संबोधित किया है। (४३) वि० सं० १२८२ में प्राचार्य सिद्ध सूरि बारहवे ने उच्चनगर में शाह लाधा के बनाये हुए जैन मंदिर की प्रतिष्ठा कराई । उस समय यहाँ ७०० घर जैनों के थे । (४४) वि० सं० १२६३ में प्राचार्य कक्क सूरि बारहवें का चतुर्मास मरुकोट (मरोट) में हुआ था । चोरडिया गोत्र के शाह काना और माना ने सात लाख का द्रव्य खर्च करके सिद्धाचल जी का संघ निकाला था । (४५) वि० १३२० तक पेथड़शाह ने भारत के ८४ प्रमुख नगरों में ५४ जैन मंदिरों का निर्माण कराया था। जिन में से जालंधर (कांगड़ा), पाशुनगर (पेशावर), हस्तिनापुर, वीरपुर (सिंध), योगिनीपुर (दिल्ली), उच्चनगर (भारत का उत्तर-पश्चिमी सीमाप्रांत), काश्मीर आदि पंजाब के अनेक नगरों में भी एक-एक जैन मंदिर निर्माण कराया था। यह पेथड़शाह श्वेतांबर जैनधर्मानुयायी था और मांडवगढ़ का निवासी था। (४६) वि० सं० १३१७ में प्राचार्य देवगुप्त सूरि बारहवें सिंध में आये मोर रेणुकोट में चतुर्मास किया। तीन सौ परिवारों को जैनधर्मी बनाया और महावीरस्वामी के मंदिर की प्रतिष्ठा कराई । वि० सं० १३६ में निग्रंथ संघ में से दिगम्बर पंथ निकला उसके बाद निग्रंथ गच्छ (गण) श्वेतांबर जनसंघ के नाम से प्रसिद्धि पाया। इसके ८४ गच्छ, हैं इन में से एक बड़गच्छ भी है। इस की स्थापना वि० सं० ६६४ में भगवान महावीर के ३५ वें पट्टधर आचार्य श्री उद्योतन सूरि से हुई थी। यह निग्रंथ गण का पांचवां नाम प्रसिद्ध हुआ।। (४७) विक्रम की १४ वीं शताब्दी में बड़गच्छ के भट्टनेर (वर्तमान में हनुमानगढ़) शाखा में मुनिशेखर सूरि नाम के प्रसिद्ध जैनाचार्य हुए हैं, उनके सम्बन्ध में वृहद्गच्छ (बड़गच्छ) गुरवावली में निम्नोक्त तीन पंक्तियां पाई जाती हैं "येषां युगप्रधानां प्रयोपि कायोत्सर्गो विधीयते । यः पूज्यभट्टोपुङ्गस्याव्याख्यानावसरे मुदा ।। श्री शत्रु जयगिरेरग्निहस्ताभ्यामपशामितः ॥१॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy