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मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म
पंजाब में उपकेश गच्छ में दीक्षा लेनेवाले प्राचार्य १--भगवान पार्श्वनाथ के पाठवें पट्टधर कक्क सूरि का सिंध में शिवपुर में सूरिपद वीरात् १२८ तथा स्वर्गवास वीरात् १८२ में हुआ।
२-बारहवें पट्टधर यक्षदेव सूरि का पंजाब में लोहाकोट (लहौर) में वीरात् २८८ में सूरिपद तथा स्वर्गवास वीरात् ३३४ में हुआ।
३-सत्तरहवें पट्टधर यक्षदेव सूरि का सिंध के वीरपुर में विक्रम संवत् ११५ में सूरि पद तथा स्वर्गवास वि० सं १५७ में हुआ।
- ४ तेइसवें पट्टधर कक्क सूरि का पंजाब में लोहाकोट (लाहौर) में वि० सं० २३५ में सूरिपद तथा वि० सं० २६० में स्वर्गवास हुआ।
५-सत्ताइसवे पट्टधर यक्षदेव सूरि का सिंध के वीरपुर में वि० सं० ३१० में सूरिपद तथा वि० सं० ३३६ में स्वर्गवास हुआ।
६-बयालीसवे पट्टधर कक्क सूरि का वि० सं० ७७८ में सूरिपद सिंध के गोसलपुर नगर में तथा स्वर्गवास वि० सं० ८३७ में हुआ।
७–चवालीसवें पट्टधर सिद्ध सूरि का सिंध के डीडूपुर में वि० सं० ८६२ में सूरिपद तथा वि० सं० ६५२ में स्वर्गवास हुआ।
८-पैंतालीसवें पट्टधर कक्क सूरि का सिंध के गोसलपुर में वि० सं० ६५२ में सूरिपद तथा वि० सं० १०११ में स्वर्गवास हुअा।
-उनपचासवें पट्टधर देवगुप्त सूरि का सिंध के डमरेलपुर में वि० सं० ११०८ में सरिपद तथा वि० सं० ११२८ में स्वर्गवास हुमा।
हम लिख आये हैं कि सिंध में अनेक जैन राजा हुए हैं और सर्वत्र जैनधर्मानुयायी गृहस्थ और साधु बड़ी संख्या में विद्यमान थे । मुसलमानों के सिंध पर पहली बार के आक्रमण के समय भी यहां पर जैनों की बहुत प्राबादी थी और यहाँ का राजा भी जैनी था। इसकी पुष्टि नीचे लिखे विवरण से भी हो जाती है
Elliot History of India Vol I में लिखा है कि
Muslims first attacked Sindh and found it full of people called "Sramanas'. (p. p. 146-158). The ruler of Sindh of that time was also a follower of Sramanas who observed the vow of Ahimsa minutly and had great confidence in their archacological predication (p. p. 158-161).
The term Saman or Shramana stands for Jain asceties Indipendent evidence also proves excistence of Jainism in Sindh (Jina Vijay faufta fidot प्रस्तावना)।
अर्थात्-एलिग्रोट हिस्ट्री प्राफ इंडिया वाल्युम एक में लिखा है कि जब मुसलमानों ने सिंध पर पहला आक्रमण किया और इसे ऐसे लोगों से भरपूर पाया जो श्रमण [तथा श्रमणोपासक कहलाते थे (पृष्ठ १४६-१५८) । उस समय सिन्ध का राजा भी श्रमणोपासक था । जो सावधानीपूर्वक अहिंसा के पालन करने-कराने का पक्षपाती था और वह पुरातत्त्व (मूर्ति-मंदिर आदि) की पूजा आदि पर बहुत विश्वास रखता था । (पृष्ठ १५८-१६१) ।
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